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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२८५

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  • सामाजिक परिस्थिति-अन्न। *

- २५६ तू अच्छे अच्छे कपड़े पहनता है और दक्षिणी तटके मध्य हिन्दुस्थान और गुज- मांसोदन यानी पुलाव खाता है: फिर : रात श्रादि । इन दोनों में आर्योंकी बस्ती दुबला क्यों हो गया है ? इससे भी बढ़- पीछेसे हुई थी। उल्लिखित वाक्यसे यह कर मजेदार एक श्लोक उद्योग पर्वकी बात भली भाँति देख पड़ती है । इन देशों- विदुरनीतिमें है। में धानकी उपज बहुत कम होती है: आख्यानां मांस परमं मध्यानां गारसोत्तरम्। गरीब और मध्यम श्रेणीके लोग बहुन तैलोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षभ । करके चावल खाते ही नहीं: तब, गङ्गाके धनवान् लोग बहुधा ऐसा भोजन: उत्तरी प्रदशके प्राय निवासियोको भात करते हैं जिसमें मांस विशेष होता है; न मिलनेके कारण इस देशमै रहना एक मध्यम स्थितिवालोकी खुराकमें दूध, घी ' तरहका अभाग्य हो जंचता होगा। इसी. प्रादि गोरसकी विशेषता रहती है और : से वर्णित है कि कलियुगमें इन देशांम ग़रीब आदमी ऐसा भोजन करते हैं लोग भर जायँगे। आजकल गेहूँका भोजन जिसमें तेल अधिक रहता है । भिन्न भिन्न चावलोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ माना जाता है: प्रान्तोंमें भिन्न भिन्न प्रकारके अन्नकी परन्तु महाभारतके समय इससे विपरीत विशेषता रहती है। हिन्दुस्तानकी वर्त- स्थिति देख पड़ती है। गेहूँ और चावल मान कालीन परिस्थितिमें यह बात स्पष्ट : दोनों ही श्रेष्ठ अनाज है । सत्तकी प्रशंसा देख पड़ती है । इसी तरहका फ़र्क प्राचीन । महाभारतमें अनेक स्थलों पर है । सक्थु काल अर्थात् महाभारतकं समय रहा ' यद्यपि उत्तम धान्य नहीं है फिर भी न होगा। पहलेपहल पार्योंकी बस्ती हिमा- मालम उसकी इतनी प्रशंसा महाभारतम लयकी तराईमें थी और फिर पाबस क्यों है । भुने हुए सक्थु खानेकी रीति लेकर ठेठ मिथिला देशतक हो गई। इस । महाभारतके समय थी । सक्थुनाम देशमें मुख्य पैदावार धानकी थी और शक्कर मिलाकर कुछ पदार्थ लड्डू वगैरह इस प्रदेशमें अब भी बढ़िया चावल होत बनाये जाते होंगे । महाभारतमें स्त्रियोंको हैं। प्राचीन काल अर्थात् भारती-युद्धक यह उपदेश किया गया है कि अपने समय आर्योंके भाजनमें मुख्यतः चावलो- लिए सक्थु न बनाना चहिए और रात- की विशेषता होना साहजिक ही है। को अकेले श्राप हीन खाना चाहिए । खैर: इन प्रदेशोसे धीरे धीरे आर्य लोग दक्षिण जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, बहुल ओरके गरम प्रदेशमें फैल गये । यहाँकी. करकं ये सक्थु मीठं होते होंगे। सक्थु मुख्य उपज चावलकी नहीं, यव या जो आजकलका सत्त है। और गेहूँकी थी तथा अब भी है। वन- पर्वमें (१० १६०) कलियुगके वर्णनमें गोरसकी महत्ता। कहा है- जनतामें गोरस विशेषतासे खानका ये यषान्ना जनपदा गोधूमानास्तथैव च। चलन था । दूध-घी बहुधा गौओंका ही तान्देशान्संश्रयिष्यन्ति यगान्त पर्यपस्थिते खाया जाता था। भैसका दूध बर्तनका जिस देशमें मुख्य करके यव और वर्णन कहीं नहीं मिलता । इससे यह न मेहुँ उपजते हैं तथा इन्हींको लोग खाते समझना चाहिए कि उस समय भैस थी हैं उन देशोंका श्राश्रय, कलियुग प्राप्त होने ही नहीं। परन्तु भैस और भैंस निन्ध पर, लोग करेंगे । ये देश हैं गलाके ' माने जाते थे। इसके सिवा देशम