सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६६
महाभारतमीमांसा
  1. महाभारतामांसा

बात भी दोनों देशोंकी स्त्रियों के लिए ठीक पड़ती है । (संयुक्त प्रान्त इत्यादिकी ओर होती है कि दोनोंके ही वर्णनमें कञ्चुक | तो सिर सदा ही ढंका रहता है। यह या चोलीका ज़िक्र नहीं। होमरने जो उत्तरीय बहुधा रङ्गीन होता था और उस वर्णन किया है और कारीगरोंने प्राचीन पर तरह तरहकी प्राकृतियाँ कढी रहनेसे यूनानी स्त्रियोंकी जो पुतलियाँ बनाई है, कीमती होता था। विधवाओंके लिये उनसे ऐसा ही अनुमान होता है। सिर्फ सादा सफ़ेद उत्तरीय धारण करने- अब एक महत्त्वका प्रश्न यह है कि का नियम था। धतरा से जब उसकी आजकल दक्षिण देशकी स्त्रियाँ जिस तरह विधवा बहुएँ वनमें मिलने गई तो लाँग (काँछ) लगाती हैं, उस तरह प्राचीन उनका वर्णन और स्त्रियोंसे भिन्न "शुक्लो- कालमें साड़ी पहनी जाती थी या नहीं। त्तरीया नरगजपत्न्यः" शब्दों द्वारा किया द्रौपदीके वस्त्र-हरणके समय यदि इस गया है। दुर्योधनकी विधवा भार्याएँ तरहकी लाँग होती तो वह किसी सफेद उत्तरीय ओढ़े हुए थीं; इससे अनु- प्रकारसे साड़ी खिंच जानेकी शङ्का न मान होता है कि अन्य स्त्रियोंके उत्तरीय होने देती। इस अनुमानसे जान पड़ता | रङ्गीन रहे होंगे। इस सम्बन्धमें प्राचीन है कि काँछ लगानेकी रीति न रही होगी। और वर्तमान पद्धतिमें बहुत कुछ फ़र्क काँछकी कल्पना "स्त्रियोंका विवाह मौजी- पड़ गया है। महाभारतकालीन नियम बन्धनकी जगह है" इसीसे निकली है। यह देख पड़ता है कि विधवाओंका वस्त्र दक्षिणमें विवाहित स्त्रियाँ ही काँछ लगाती सफ़ेद रङ्गका होना चाहिए और सौभाग्य- है। वहाँ क्वॉरियोंमें काँछ न लगानेकी । वतियोंको रङ्गीन वस्त्र पहनना चाहिए । । इस समय कुछ प्रान्तोंमें विधवा स्त्रियों के गरीब और काम करनेवाली स्त्रियोंमें वस्त्रका विशेष रङ्ग लाल दम्ब पड़ता है। उत्तरीय धारण करनेकी रीति महाभारतके ' यह ग्ङ्ग बहुत करके संन्यासिनियोंके रक्त- समय न थी । द्रौपदीने जिस समय पटका अनुकरण होगा। गुजगतियों में सैरन्ध्रीके वेशमें विराट नगरीमें जाकर विधवाओंके वस्त्रको रङ्गत काली होती है। रानी सुदेष्णाकी नौकरी कर ली, उस : यह वस्त्र बहुत ही सादा और मटियल समय वह रानीके आगे एक-वस्त्रा खड़ी , काले रङ्गसे रँगा होता है। फिर भी निरा रही। 'वासश्च परिधायैकं कृष्णा सुम- सफ़ेद कपड़ा (दक्षिणमें ) बहुधा व्यवहृत लिनं महत काम करनेका पेशा होनेके नहीं होता। अाजकल जो यह नियम है कारण मैला-कुचैला एक ही लम्बासा ! कि स्त्रियोंका वस्त्र किनारेदार होना कपड़ा काम करनेवाली स्त्रियाँ पहनती चाहिए, सो यही बात प्राचीन समयमें थी।मासिक-धर्मकी अवस्थामें अथवा घर भी रही होगी। कमसे कम इन वस्त्रों का कामकाज करते समय अन्य स्त्रियाँ पर तरह तरहके चित्र कढ़े होते थे। भी साधारण तौर पर उत्तरीयन लेती कालिदासकी उक्ति 'वध दुकलं कलहंस- थी। बाहर जाते समय उत्तरीय वस्त्र लक्षणम्' की यहाँ याद आती है। सिरसे ओढ़ लिया जाता था। दाक्षिणात्य स्त्रियोंकी केश-रचना। लियाँ घरसे बाहर निकलते समय जो सिरको जरासा लुगड़ेसे ढंक लेती हैं, वह स्त्रियोंके मस्तकके लिये किसी भी उत्तरीयकी अवशिष्ट प्रथा ही जान नरहका भिन्न अाच्छादन न था जैसा कि RIG