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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३११

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  • सामाजिक परिस्थिति-रीति-रवाज । #

चतुर्वेदोपि दुर्वृत्तः सशृदादतिरिच्यते । तरह उम्रभर उदार आचरणसे रहनेका अग्निहोत्रपरोदान्तः स ब्राह्मण इति स्मृतः॥ होता था, उसी तरह उनकी यह भी (वन पर्व० अ० ३१३) महत्त्वाकांक्षा रहती थी कि हमें उदात्तरीति- इस वर्णनसे देख पड़ेगा कि महाभा- से मृत्यु भी प्राप्त हो । घरमें बीमार होकर रतके समय शुद्ध व्यवहारका कितना मूल्य किसी रोगसे बिछौने पर मरनेको प्राह्मण- था। ब्राह्मणत्वके लिए कुल, वेदाध्ययन क्षत्रिय अत्यन्त दुर्दैव मानते थे। अथवा विद्वत्ता भी कारण नहीं है: वृत्त ! अधर्मः सुमहानेष यच्छय्यामरणं गृहे । अर्थात् आचरण अथवा शील ही कारण अरण्ये वा विमुच्येत संग्रामे वा तनुं नरः॥ माना जाता था । चारों वेद पढ़ा हुआ। क्षत्रियके लिए मरनेका उचित स्थान ब्राह्मण भी यदि दुर्वृत्त हो तो वह शुद्रसे अरण्य अथवा संग्राम है । गदा-युद्धके भी अधिक निन्द्य है। इसी प्रकार भारती समय यही उत्तर दुर्योधनने पाण्डवोंको आर्योंकी पूरी धारणा थी कि सम्पत्ति दिया था जब कि वे उसे शरणम पानेको और ऐश्चर्यका मूल वृत्त अथवा शील ही कह रहे थे। लड़ाई में मरना क्षत्रियोंको है। शान्तिपर्वके १२४ व अध्यायमें युधि- एक अत्यन्त आनन्द और पुण्यका गिरने पूछा है कि लक्ष्मी किस तरह प्राप्त फल अँचता था । भगवद्गीताम 'मुखिनः होती है । उस समय भीष्मने प्रह्लाद और क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम' कहा इन्द्र के संवादका वर्णन किया है । उस गया है। लड़ाई में मरना जिनके लिए संवादमें यही तत्त्व प्रतिपादित है। इस सम्भव नहीं, वे वुढ़ापेमें घरमें काँखते हुए न सुन्दर श्राख्यानमें असुरोंका पराभव बैठे रहते थे। वे तप करनेके लिए अरण्यमे करनेके लिए इन्द्रने ब्राह्मण रूपसे प्रह्लाद- चले जाते, और तपके द्वारा वहीं शरीर के समीप जाकर उनका शील माँगा। छोड़ देते थे। इस तरह अरण्यमें जा. प्रह्लादने जब इन्द्रको शील दिया, तब कर धृतराटने देह त्याग दो और उसकी देहसे शील बाहर निकला और अन्तमें पाण्डवोंने भी इसी मतलबसे महा- उसके साथ ही श्री अथवा लक्ष्मी भी प्रस्थान किया। क्षत्रियोंकी भाँति, घरमें बाहर हो गई। प्रह्लादने अचरजके साथ मर जानको ब्राह्मण भी भाग्य मानते थे। पूछा कि तू कौन है , और कहाँ जाती है। और जो लोग धैर्यवान् होते थे व महा- उस समय लक्ष्मीने उत्तर दिया कि "मैं प्रस्थान द्वारा अथवा चितामें शरीरको श्री हूँ: जहाँ शील रहता है वहीं में भी जलाकर या पवित्र नदीमें जल-समाधि रहती हूँ, और वहीं धर्म, सत्य तथा बल लेकर प्राण छोड़ देते थे। और लोग वन- भी वास करते हैं । जब तुमने अपना में जाकर संन्यासी हो जाते थे और शील इन्द्रको दे डाला, तब ये सब मेरे संन्यास-वृत्तिसे मरणकी प्रतीक्षा किया साथ, तुमको छोड़कर, इन्द्रकी ओर जा करते थे। ये बातें शायद हमें असम्भव रहे हैं। अच्छे चालचलनकी और मालुम हो । परन्तु यूनानी इतिहासकारों- उससे निश्चयपूर्वक प्राप्त होनेवाले धर्म, ने ऐसे प्रत्यक्ष वर्णन लिख रखे हैं। दो सत्य, बल आदि ऐश्वर्यकी प्रशंसा इससे ब्राह्मण पथेंस शहरमें जय बीमार हुए, तब अधिक सुन्दर रीतिसे होना सम्भव नहीं। वे चिता प्रज्वलित करके उसमें आनन्दके रणमें अथवा वनमें देह त्याग। साथ बैठ गये। सिकन्दरके साथ जो भारती आर्योका साग प्रयत्न जिस कलनस ( कल्याण ) नामक योगी गया