सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/४४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४१४
महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा ॐ तेरहदाँ प्रकरण। हुआ था। आजकल जिस तरह तारीखका उपयोग किया जाता है उसी तरह भारती कालमें नक्षत्रोंका उपयोग किया जाता | था। जिस तरह आजकल यह कहा जाता ज्योतिर्विषयक ज्ञान । है कि अमुक तारीखको अमुक बात हुई, ' उसी तरह महाभारत-कालमें कहा जाता अब देखना चाहिए कि महाभारतके था कि अमुक बात अमुक नक्षत्र पर हुई समय भारती पार्योको ज्योतिष- थी। समग्र 'सत्ताईस' नक्षत्रोंकी संख्या शास्त्रका कितना शान था। महाभारतमें एक हिसाबसे कम पड़ती थी, क्योंकि ज्योतिर्विषयक उल्लेख अनेक स्थलों पर चान्द्र मास अट्ठाईस दिनोंकी अपेक्षा हैं; और उन उल्लेखोंसे सिद्ध है कि महा- कुछ जरासा बड़ा है । अतएव किसी भारतके समयतक ज्योतिषशास्त्रकी बहुत समय सत्ताईस नक्षत्रोंके बदले अढाईस कुछ जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। इससे नक्षत्र माननेकी रीति पड़ गई थी। परन्तु बहुत पूर्व वेदाङ्गज्योतिषका निर्माण हो यह अट्ठाईसवाँ नक्षत्र असलमें काल्पनिक चुका था और ज्योतिषशास्त्र में गणितशास्त्र- : ही था। और उसके लिए काल्पनिक स्थान का बहुत कुछ प्रवेश भी हो चुका था । सूर्य ' भी दिया गया था। इस अभिजित् नक्षत्रके और चन्द्रका गणित कर लेनेकी पद्धति विषयमें महाभारत (वनपर्व) में एक अद्भुत लोगोंको मालूम हो गई थी। तथापि कथा लिखी है। वनपर्वके २३०वें अध्याय- समग्र रीतिसे ज्योतिषशास्त्रकी उन्नति में ये श्लोक पाये हैं:- महाभारत-कालके पश्चात् ही हुई-इससे अभिजित्स्पर्धमानातु रोहिण्या कन्यसी इनकार नहीं हो सकता । यूनानियोंका भी स्वसा । इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं ज्योतिष-विषयक ज्ञान महाभारत-कालके वनं गता ॥ तत्र मूढोस्मि भत्त्रं ते नक्षत्रं पश्चात् ही बढ़ा और सन् ईसवीके प्रारम्भ- गगनाश्युतम् । कालं विमं परं स्कन्द के लगभग उस ज्ञानका भारती ज्योतिष- ब्रह्मणा सह चिन्तय ॥ धनिष्ठादिस्तदा- शास्त्रके शानके साथ मेल हुआ: और फिर कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः । रोहिणी इसके पश्चात्, सिद्धान्त आदि बड़े बड़े . त्वभवत्पूर्व एवं संख्या समाभवत् ॥ उत्तम विस्तृत ग्रन्थ भारतवर्षमें तैयार । एवमुक्तं तु शक्रेण त्रिदियं कृत्तिका गताः । हुए । अब इस भागमें इस बातका विचार नक्षत्रं सप्तशीर्षाभं भाति तद्वह्निदेवतम् ॥ किया जायगा कि भारती-कालमें ज्योतिष- इन श्लोकोंका ठीक ठीक अर्थ नहीं की जानकारी किस तरह बढ़ती गई। लगता। परन्तु स्पष्ट रूपसे कहा गया भारती-कालके प्रारम्भ अर्थात् वैदिक- है कि अभिजित् नक्षत्र आकाशसे गिर कालके अन्तमें भारतीय आयौंको २७ पड़ा क्योंकि बड़प्पनके लिए उस नक्षत्र- नक्षत्रोंका, और उनके बीच चन्द्रकी गति- . का रोहिणीके साथ झगड़ा हो गया का, अच्छा शान हो गया था। यजुर्वेदमें था। उस समय स्कन्दने, ब्रह्मदेवके साथ सत्ताईस नक्षत्र पठन किये गये हैं। यही : इस बातका विचार करके, धनिष्ठासे नाम महाभारतमें भी आते हैं । चन्द्र प्रति काल-गणना शुरू कर दी। इससे पहले दिन सत्ताईस नक्षत्रों से किसी न किसी रोहिणी मुख्य थी। इस प्रकार व्यवस्था एक नक्षत्र में रहता है, यह भी इशारा करने पर संख्या पूर्ण हो गई और कृत्तिका