सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५३६
महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा*

तत्वज्ञानका उझेख होगा। "पुण्य तथा की अपेक्षा संन्यासपक्ष पर कुछ अधिक अपुण्य दोनोंकी ही निवृत्ति होने पर जोर दिया हुआ दिखाई देता है। अब जिन शान्तियुक्त संन्यासियोका पुनर्जन्म- हम महाभारत-कालकी भोर झुकनेके का भय नष्ट हो गया है, वे जिस स्थानमें पूर्व सनस्सुजातका, जो पुराना पाल्यान प्रविष्ट होते हैं, उस मोक्षस्वरूपी पर-है, विचार करेंगे। मात्माको नमस्कार है।" ___ इसमें वेदान्त-तत्व प्रतिपादित है। अपुण्यपुण्योपरमे यह सिद्धान्त, किशानसे ही मोक्ष मिलता यं पुनर्भवनिर्भयाः। 'है, उपनिषद्का ही है। यह भी सिद्धान्त शाम्ताः संन्यासिनो यान्ति वहींका है कि जीवात्मा और परमात्मा तस्मै मोक्षात्मने नमः॥ अभिन्न हैं। प्रमादके कारण मृत्यु होती इस वाक्यमें उपनिषन्मतका हो उल्लेख । है, यानी अपने परमात्म स्वरूपको भूलने. है। यह उपनिषद्का तत्व है कि पाप से आत्माकी मृत्यु होती है; यह एक और पुण्यके नष्ट हुए बिना मोक्ष नहीं . नवीन नत्य है। परमात्मा भिन्न भिन्न मिलता। वह भवद्गीतामें भी पाया है: आत्माका क्यों निर्माण करता है ? और परन्तु मुख्य रूपसे नहीं। इस वाक्यमें मृष्टि उत्पन्न करके दुःम्ब क्यों भोगता है ? मुख्य बातें तीन हैं । पुगय और अपुगयको इन प्रश्नोंका यह उत्तर दिया गया है कि निवृत्ति, शान्ति और संन्यास । मालम' परमेश्वर अपनी मायासे जगत्का निर्माण होता है कि यही वेदान्तका मुख्य आधार करता है। इस मायाका उद्गम वेदमें ही है। इससे संन्यास मनका कुछ प्रभाव है, जो "इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप भगवद्गीतामेसे भीष्मस्तवमें आया हुअाईयते" इस वचनमें है। तथापि, उप- दिखाई देता है। इसके पहलेका भी पकनिषद में उमका विशेष विस्तार नहीं है। लोक वेदान्त-मतका दिखाई देता है। भगवद्गीतामें यह कहा है कि माया पर. "अज्ञानरूपी घोर अन्धकारके उस पार मेश्वरकी एक शक्ति है। संभवाभ्या- रहनेवाले जगद्व्यापक जिस परमेश्वर- का ज्ञान होने पर मोक्ष मिलता है. उस ममायया' वाक्यका ही उल्लेख इस शेय-स्वरूपी परमेश्वरको नमस्कार है"। आख्यानमें है। कर्मके तीन प्रकार कहे स्पष्ट है कि यही शेय ब्रह्म है। इसके हैं। आत्मनिष्ठ साक्षात्कारीको शुभाशुभ सिवा ब्राह्मका तथा परब्रायका भी उल्लेख कर्मोंसे बाधा नहीं होती। निष्काम कर्म पके साति-विषयक ओकोटा पूर्व स्तुति-विषयक श्लोकोंमें वेदान्त- करनेवालेका पाप शुभ कमेसे नष्ट होता मतके अनुसार ही पाया है। यह कल्पना है श्रीर काम्य कर्म करनेवालेकी शभाश्रम नई कि उससे सारे जगतका विस्तार कोके शुभाशुभ फल भोगने पड़ते है। होता है, इसीसे उसे ब्रह्म कहते हैं। मौन यानी परमात्माकी एक कल्पना पुराणे पुरुषं प्रोक्तं ब्रह्ममोक्तं युगादिष। विशेष्य है। पर वह उपनिषदोंसे ही लये संकर्षणं प्रोक्तं तमुपास्यमुपास्महे : निकली है । उपनिषद्, “यतो वाचो यह कल्पवा उपनिषद्में नहीं है निवर्तन्ते" कहा है। "मौन संशा पर. और इसमें कहा है कि पुरुष संशा पूर्ष मात्माकी है। क्योंकि वेद भी मनसे वहाँ कल्पोंके सम्बन्धकी है। इससे हम कह प्रवेश नहीं कर सकते।" ब्रह्मके चिंतनके सकते हैं कि भीष्मस्तवराजमें भगवनीता.लिए जो मौन धारण करता है उसे मुनि