सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • नि मतपत्र विकास। ®

.. कपित और स्यूमरश्मिके संवादमें ब्रह्मको पहुँचते हैं। सन्तोष जिसका मूल पाही विषय फिर माया है, और उसका है और त्याग जिसका प्रात्मा है, ऐसा पिच भी ऐसा ही अनिश्चित हुआ है। यतिधर्म सनातन है, और मोक्ष ही उसका स्मरश्मिने गृहस्थाश्रमका पक्ष लेकर ध्येय होनेसे वही ध्यानका अधिष्ठान होने योग्य है। इससे महाभारत-कालमें यह कस्यैषा वाग्भवेत्सत्या मत प्रतिपादित होने लगा था कि बों- नास्ति मोक्षो गृहादिति । १० मेसे ब्राह्मण और ब्राह्मणोंमेंसे चतुर्थाश्रमी (शां० अ० २६६) संन्यासी ही मोक्षकी प्राप्ति करते हैं। और भी कहा है कि- परन्तु यह बात अवश्य मानी जाती थी पोतदेवं कृत्वापि कि शास्त्रने सब वर्गों और आश्रमोको न विमोक्षोऽस्ति कस्यचित्। स्वतन्त्रता दी है। उपनिषदमें जानश्रुति धिकतरं च कार्य च शूद्रको मोक्ष-मार्गका उपदेश किया है और श्रमवायं निरर्थकः ॥६६ । श्वेतकेतु ब्रह्मचारीको तत्व-प्राप्तिका उप- कपिलने पहलेयह स्वीकार किया कि- देश किया है । भगवद्गीताके "त्रियो वेदाःप्रमाणं लोकानां न वेदाः पृष्ठतः कृताः। वैश्या:" आदि वचनोंसे यही स्वतन्त्रता देब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ॥ दी गई है। यद्यपि महाभारत-कालमें यह शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ! बात मानी जाती थी, तथापि यथार्थमें और फिर अन्नमें उसने यह भी मान्य लोग समझने लगे कि ब्राह्मण और विशे- किया है कि "चतुर्थोपनिषद्धर्मः सापा-षतः चतुर्थाश्रमी ही मोक्ष-मार्गका स्वीकार रण इति स्मृतिः।" उसने यह बात करते हैं और मोक्षपदको पहुँचते हैं। भी स्वीकृत की कि स्मृतिमें यह कथन बहुत क्या कहा जाय, शांति पर्वके २४६वं कि उपनिषदोंमें बताये हुए चतुर्थ अथवा अध्यायमें वेदान्त-झामकी स्तुति करते तुरीय पदवाच्य ब्रह्म-पदकी प्राति र समय इस प्रकार- लेनेकी स्वतन्त्रता चारों अाश्रमों और दशद दशेदं ऋक्सहस्राणि निमथ्यामृतमुद्धृतम्। चारों वौँको है । हमारी रायमें यहाँ : स्नातकानामिदं वाच्यं शास्त्रं पुत्रानुशासनम्॥ स्मृति शब्दसे भगवद्गीताके "स्त्रियो । इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुमताय च । स्त्रया रहस्यधर्म वक्तव्यं नान्यस्मै तु कदाचन । वैश्यास्तथा शूद्रास्तपि यांति परां यस्यप्यस्य महीं दद्याद्रनपूर्णामिमां नरः॥ गतिम् वचनका ही उल्लेख किया हुआ उपनिषन्मतका ही वर्णन करके दिखाई देता है। परन्तु आगे चलकर यह व्यासजीने सूचित किया है, कि यह कहा है कि- रहस्य-धर्म स्नातकोको ही देने योग्य है। संसिद्धःसाध्यते नित्यं ब्राह्मणैर्नियतात्मभिः। अर्थात् स्त्रियाँ इसके लिए अधिकारी संतोषमूलस्त्यागात्मा ध्यानाधिष्ठानमुच्यते॥ नहीं हैं । इस प्रकार वेदान्त-शान और अपवर्गमतिर्नित्यो यतिधर्मः सनातनः। संन्यासका सम्बन्ध भगवद्गीताकी अपेक्षा (शां० अ० २७०-३०, ३१) महाभारतके कालमें अधिक दृढ़ हुना। (चित्त-शुद्धि करके) संसिद्ध तथा परन्तु वह अपरिहार्य न था। इस कालके नियतेन्द्रिय ब्राह्मणोंको ही इस स्वतन्त्रता- , पश्चात् बादरायणके सूत्रमें यह सम्बन्ध का उपयोग होता है, और वे ही तुरीय पक्का और निम्यका हो गया। शूद्र शब्द-