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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५८२

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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा

मतका सविस्तर वर्णन, महाभारतमें उत्पन्नकर्ता है । इस मतमें पशुका शान्तिपर्वके २८० में अध्यायमें विष्णु-मर्थ है, सारी सृष्टि। पशु यानी ब्रह्मासे स्तुतिके बीच में इन्द्र और वृत्रका प्रसङ्गो- स्थावरतक सब पदार्थ । इसकी सगुण पात हाल कहने पर, २८४ वें अध्यायमें भक्तिके लिये कार्तिक स्वामी, पार्वती दक्ष द्वारा की हुई शंकरकी स्तुतिमें और नंदि देव भी शामिल किये जाते हैं किया गया है। दक्षके यशमें शंकर और उनकी पूजा करनेको कहा गया है। को हविर्भाग न मिलनेसे पार्वती और · शंकर अष्टमूर्ति हैं । वे ये हैं-पंचमहाभूत, शंकरको क्रोध आया । शंकरने अपने सूर्य, चंद्र और पुरुष । परन्तु इन मूर्तियों- क्रोधसे वीरभद्र नामक गणको उत्पन्न के नाम टीकाकारने दिये हैं। अनुशासन किया और उसके हाथसे दक्ष-यज्ञका पर्वमें उपमन्युके आख्यानमें इस मतका विध्वंस कराया। तब अग्निमेंसे शंकर और थोडासा विकास किया गया है। प्रकट हए और दत्तने उनकी १०० परन्तु इसमें हमेशाकी महाभारतकी नामोसे स्तुति की । ऐसी यहाँ कथा है। पद्धति, यानी सब मतोंको एकत्र करनेकी आगे अनुशासन पर्वमें उपमन्युने जो प्रक्रिया दिखाई देती है। उदाहरणार्थ,- सहस्र नाम बतलाये हैं उनसे ये नाम “शंकरने ही पहले पांचभौतिक ब्रह्मांड भिन्न दिखलाई देते हैं । इस समय पैदा करके जगदुत्पादक विधाताकी शंकरने दक्षको 'पाशुपत' व्रत बतलाया स्थापना की. पंचमहाभूत, बुद्धि, मन और है। "वह गूढ़ और अपूर्व है। वह सब महतत्त्व महादेवने ही पैदा किये; पाँच वों के लिए और आश्रमोंके लिए खुला ज्ञानेंद्रियाँ और उनके शब्दादि विषय भी है और तिस पर वह मोक्षदायी भी है। उसीने उत्पन्न किये । ब्रह्मा, विष्णु और वर्णाश्रम विहित धर्मास वह कुछ मिलता रुद्रका उसी महादेवस शक्ति मिली भी है और कुछ नहीं भी मिलता। जो है। भूलोक, भुवीक, स्वर्लोक, महा- न्याय और नियम करने में प्रवीण हैं, उन्हें लोक, लोकालोक, मेरुपर्वत और अन्यत्र यह मान्य होने योग्य है और जो लोग सब स्थानों में शंकर ही व्याप्त है । यह चारों आश्रमोके परे हो गये हैं यह उनके : देव दिगंबर, ऊर्ध्वरेता, मदनको जीतने भी लायक है।" वाला और स्मशानमें क्रीड़ा करनेवाला है। अपूर्व सर्वतोभद्रं सर्वतोमुखमव्ययम। उसके अधांगमें उसकी कांता है। उसीसे अब्दैर्दशाहसंयुक्तंगूढमप्राशनिंदितम् ॥६॥ विद्या और अविद्या निकली और धर्म वर्णाश्रमकृतैर्धमै विपरीतं क्वचित्समम्। तथा अधर्म भी निकले । शंकरके भग- गतान्तरध्यवसितमत्याश्रममिदंव्रतम् ॥६४॥ लिंगसे निर्गुण चैतन्य और माया कैले ___ ध्यानमें रखना चाहिए कि इसमें होती है और इनके संयोगसे सृष्टि कैसे 'भब्दैर्दशाहसंयुक्तम्' पद कठिन और उत्पन्न होती है इसका अनुमान भी हो कूटार्थ है। सब देवोंमें जैसे शिव श्रेष्ट सकता है। महादेव सारे जगतका आदि है वैसे हीस्तवोंमें यह दक्षस्तव वरिष्ठ है। कारण है । सारा चराचर जगत् उमा इस वर्णनसे पाशुपत-मतकी कुछ और शंकरके दोनों देहोंसे व्याप्त है।" कल्पना होगी। यह मत शंकरने सिख- (अनु० अ०१४) लाया है। इस मतमें पशुपति सब शंकरके स्वरूपका उपमन्युको ऐसा देवोंमें मुख्य है । वही सारी सृष्टिका | दर्शन हुआः- “शुभ्र कैलासाकार नंदि-