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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६१०

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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा ®

अच्छा दौड़ सकता है। अतएष हमारा प्रयोग, या 'नाचिकेतं शकमहि' में 'शके- यह मत है कि जिस समय संस्कृत भाषा महि' का प्रयोग, या 'गूढोत्मा म प्रका- जीती थी उसी समय भगवद्गीता बनी शते' में 'गूढोत्मा' सन्धि गलत है। होगी। इसके सम्बन्धमें थोड़ासा विचार सारांश, भगवद्गीता पाणिनिके बहुत यहाँ और करना चाहिए। समय पूर्वकी है, इसलिए उसकी भाषा- ___ यह निर्विवाद है कि जब महाभारत- को केवल पाणिनीय-व्याकरणकी दृष्टिसे ग्रन्थ बना उस समय संस्कृत भाषा मृत देखना ठीक नहीं। हमारी समझमें जैसी थी। इतिहास पर दृष्टि-पात करनेसे हम दशोपनिषदोंकी भाषा है, वैसी ही स्वतन्त्र कह सकते हैं कि बुद्धके कालमें यानी ई० तथा अधिक सरल भगवद्गीताकी भी सन्से लगभग ५०० वर्ष पूर्व अथवा इस भाषा है। समयके कुछ और पूर्व सामान्य जनसमूह- भाषा-शास्त्रके जाननेवालोका कथन की बोल-चालकी भाषा संस्कृत न थी। है कि दो सौ या चार सौ वर्षके बाद निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ' भाषामें फर्क पड़ता ही है। और, यह वह कितने वर्ष पूर्व मृत हो गई थी। बात मगठी तथा हिन्दी भाषाओंके इति- पाणिनि ई० सनसे लगभग ८०-६... हाससे हमें दिखाई पड़ती है । यहाँ भाषा- वर्ष पूर्व हुआ। उस समय सभी लोग शास्त्रज्ञ यह प्रश्न उपस्थित करेंगे कि जब संस्कृतभाषा बोलते थे। पाणिनिके समय ऐसा है तब महाभारत और भगवदीताकी 'संस्कृत' तथा 'प्राकृत' शब्द ही न थे। भाषामें इतना फर्क क्यों नहीं दिखाई उसने तो 'संस्कृत के लिए 'भाषा' शब्द- देता? निस्सन्देह यह विचारणीय है। का उपयोग किया है। अर्थात् हम यह पाश्चात्य पण्डित समस्त वैदिक साहित्य- कह सकते हैं कि पाणिनिके समयमें को जिन कारणोंसे निकट भूतकालका संस्कृत भाषा जिन्दा थी । हमने यह बतलाते हैं उनमेंसे एक कारण यह भी निश्चित किया है कि भगवद्गीता ' है। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि पाणिनिके हजार या आठ सौ वर्ष पूर्व उन लोगोंकी कल्पना बिलकुल गलत है, लिखी गई है। अर्थात ऐसा न मानना तथापि हमें दो तीन बातों पर अवश्य चाहिए कि पाणिनिके व्याकरणकी दृष्टि- • ध्यान देना चाहिए । एक तो यह कि जब से भगवद्गीतामें जो थोड़ेसे अप-प्रयोग, भाषा मृत हो जाती है तब उसका स्वरूप हैं वे गलत है । उन्हें गलत कहना ठीक बिलकुल नहीं बदलता । वह भाषा केवल बैसा ही होगा जैसे कोई भाषा-भास्करके पण्डितोंके बोलने और लिखनेकी भाषा आधार पर पृथ्वीराज रासोकी गल- बन जाती है और उस भाषामें जो प्राप्त तियाँ निकालनेकी चेष्टा करे । वैसे तो व्याकरण होता है उसी व्याकरणके अनु- पाणिनिके आधार पर दशोपनिषदोंमें भी सार सब वाग्व्यवहार होता है। यह गलतियाँ दिखाई जा सकती हैं। कठोप- स्पष्ट है कि यदि उस भाषाका कोई प्राप्त निषदका ही पहला अध्याय लीजिए। व्याकरण न हो, तो वह भाषा मृत होने पाणिनिके अनुसार उसके 'प्रते प्रवीमि', पर पुनः लिखी भी न जायगी। जो भाषाएँ 'सदमे निबोध' पदोंमें 'प्र' व्यर्थ कहा संस्कृत होकर इतनी उन्नत अवस्थाको जायगा । ऐसे ही यह कहा जायगा कि पहुँच जाती हैं कि जिनसे उनका व्याकरण 'प्रवृह्य धर्ममणुमेत माप्य' में 'प्राप्य' का बन सकता है, केही मृत दशामें भी