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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६२५

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ॐ भगवाता-विचार। साय उसकी शुश्रूषा करनेमें लगी रहती न करनेमें कुछ भी आश्चर्य नहीं । यद्यपि है। ऐसा उदाहरण देखकर हमें विश्वास उन्होंने पाण्डवोंको राजसूय और अश्वमेध होता है कि संसारमें कैसे कैसे सात्विक यज्ञ करनेसे नहीं रोका, तथापि ध्यानमें कर्ता रहते हैं। रखना चाहिए कि उन्होंने बचपनमें ही गोपालोको उपदेश दिया था कि इन्द्र- अहिंसा मत। यशके बदले गिरि-यज्ञ करो। भगवद्गीता- इस प्रकार श्रीकृष्णने अर्जुनको अपना में भी स्वर्गकी इच्छासे अनेक प्रकारक कर्मयोग अच्छी तरह समझाकर उसकी काम्य यज्ञ करनेके विरुद्ध श्रीकृष्णका वह पराङ्मुखता दूर कर दी थी जो उसने पूरा पूरा कटाक्ष दिखाई देता है। श्रीकृष्ण- धर्म तथा प्राप्त युद्धके समय दिखाई थी। के कालके अनन्तर ऐसा दिखाई देता है इससे यह नहीं समझना चाहिए कि कि हिंसायुक्त यझके विरुद्ध धीरे धीरे श्रीकृष्ण हिंसाके अनकल थे। वे अहिंसा- लोकमत बढ़ने लगा। यह कहनेमें कोई मतके अभिमानी थे और उन्होंने उसी आपत्ति नहीं कि हिन्दुस्थानके सब लोगों- मतका जोरोंसे उपदेश दिया है। बहुत ने तो गवालम्भ श्रीकृष्णकी ही भक्तिसे लोगोंकी धारणा है कि अहिंसा-मतके बन्द कर दिया था। प्रथम उपदेशक बुद्ध और जैन है । परन्तु श्रीकृष्णका अपने उपदेशके यह उनकी भूल है। अहिंसा-मत उपनि- ' ष: है। छान्दोग्यका श्रादेश है कि- अनुरूप आचरण । "अहिंसन् सर्वभूतानि अन्यत्र तीर्थेभ्यः ।" भक्तिमार्ग, कर्तव्यनिष्टा, अहिंसा भगवद्गीतामें भी अहिंसा ज्ञानके लक्षणों- आदि नवीन उच्च तत्व श्रीकृष्णके दिव्य में बतलाई गई है। इसके सिवा यह ' उपदेशके कारण हिन्दूधर्ममें समाविष्ट भी कहा है कि अहिंसा शारीरिक तप है। हुए थे। इन बातोंसे पाठकोके ध्यानमें यह अन्य देशोंके इतिहाससे भी दिखाई। श्रावेगा कि धर्मके सम्बन्धमें श्रीकृष्णने देता है कि अहिंसातत्व हिन्द धममे पहले-जा काम किया उसका महत्व कितना है। से ही है। ऐसा माना गया है कि पाय- : यह बात सबको मान्य होगी कि श्रीकृष्ण- थागोरसका अहिंसा-मत था और उसे का उदार चरित्र उनके उदास उपदेशक वह हिन्दुस्थानसे प्राप्त हुआ था। हिरा- अनुकूल ही होना चाहिए। तुकारामके डोटसके इतिहासमें स्पष्ट उल्लेख है कि इन वचनोंके अनुसार ही-'बोले तैसा उस समय भी अहिंसा मतवादी लोग चाले, त्याची वंदावी पाउलें' श्रीकृष्ण हिन्दुस्थानमें थे।सारांश यह है कि अहिंसा- वन्दनीय थे: उन्हें जो हम पुण्यश्लोक मत बुद्ध के पूर्वका है। ऐसा जान पड़ता कहते हैं सो कोई विरोधी लक्षणसे नहीं। है कि उसका उद्गम श्रीकृष्णके उपदेशसे धर्म-संस्थापनके लिए. ही श्रीकृष्णका ही हुमा । श्रीकृष्णका काल ऋग्वेदोत्तर अवतार था। ये सब बातें बहुत स्पष्ट उपनिषत्काल है। उस समय यज्ञयागका हैं, तो भी उनके चरित्रमें दो कलक मड़े पूर्ण प्राबल्य था। यदि कोई यह कहे कि जाते हैं। आश्चर्य तो यह है कि लोगों- उन्होंने ऐसे समय यज्ञमें होनेवाली हिंसा में मान्य भी हो गये हैं। यद्यपि ये कलक बन्द करनेका उपदेश कहीं नहीं दिया, तो चन्द्रमाके कलङ्कके सदृश रम्य नहीं है, ध्यानमें रखना चाहिए कि उनके ऐसा तथापि निःसन्देह वे झूठे और कारप.