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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६२७

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• भगवडीता-विचार । कालगतिसे इतना बढ़ा कि ई० सन्की से कूट युद्धके द्वारा मरवाया । पाठकोंके हबीशताब्दी में जो भागवत ग्रन्थ प्रसिद्ध मन में यह आक्षेप इसलिए पैदा होता है मा उससे यह प्रसङ्ग निकाल बाहर कि, उनके ध्यान में इस प्रसंगका अपवादक करना असम्भव हो गया। इस अद्वितीय आता ही नहीं । साधारण कवियोंकी बेदान्त प्रथने उसे एक तरहसे अपने अत्युक्तिके कारण लोग श्रीकृष्णकी नीति- रम्य कवित्वसे तो अजरामर कर दिया को ऊपर ही ऊपर विचार करनेवाले है, परन्तु दूसरी तरहसे उसे वेदान्तमें पाश्चात्य देशके प्रसिद्ध मेकियावेलीकी लपेटकर इतना पवित्र कर रखा है कि ही नीति समझते हैं । परन्तु उनका ऐसा हम श्रीकृष्ण और गोपियोकी लोलाके समझना बिलकुल गलत है। श्रीकृष्णको हजारों गीत सुनते हैं तो भी हमारे मनमें नीति और धर्मका पूरा अभिमान था। श्रीकृष्णके प्रति निन्ध भावना लेशमात्र उन्होंने अधर्म या कुनीतिका उपदेश भी पैदा नहीं होती। जब भगवान्ने इस कभी नहीं दिया और न कभी इनका प्रवादको आश्रय देकर उसे पवित्र कर आचरण स्वयं ही किया। हाँ, विशेष छोड़ा तब नवीन शृङ्गारप्रिय कवियोंने अपवादक प्रसंगोंमें धर्मकी भ्रांत कल्पना- विशेषतः जयदेवने अपने गीतगोविन्दमे से उत्पन्न हुई भूलका उन्होंने निषेध किया तथा अन्य कवियोंने ब्रजभाषाके सहस्रों है। ऐसे मौके पर धर्माधर्मका निश्चय सुन्दर पद्योंमें उसे चहुँ ओर फैलाकर करना बुद्धिमानोंको भी कठिन जान पड़ता लोकप्रिय किया। इस विषयमें अधिक है। ऐसे अपवादक प्रसंग श्रीकृष्णके क्या कहें, इससे प्राकृत शृङ्गारमें एक चरित्रमें कई हैं। उस समय उन्होंने अपने प्रशस्त मर्यादा उत्पन्न हो गई सी दिखाई आचरण और उपदेशसे दिखाया है कि देती है। उसके कारण ऐसा प्रशस्त कवि- ऐसे प्रसंगोंमें मनुष्य कैसा आचरण करे । सम्प्रदाय दिखाई पड़ता है कि यदि इस बातका अधिक स्पष्टीकरण हम शृङ्गार ही गाना है तो गोपीकृष्णका गाया श्रागे करेंगे। जाय। अस्तु । यद्यपि भागवतने इस आक्षेपका निन्द्यत्व निकाल डाला है, सामान्य नीतिके अपवादक प्रसङ्ग। तथापि ऐतिहासिक दृष्टिसे उसकी अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि नीति तथा सत्यासत्यताका विचार करना आवश्यक धर्मके परम तत्व सब लोगोंको एक समान था और, इस विचारसे यही कहना पड़ेगा मान्य हैं। क्या हिन्दू धर्ममें, क्या ईसाई कि यह प्रवाद निराधार है। धर्ममें, क्या बौद्ध धर्ममें, क्या मुसलमानी धर्ममें सब कहीं यही प्राज्ञाएँ प्रमाण हैं। श्रीकृष्णका कपटपूर्ण आचरण । ये ही आदेश जगत्के सब विद्वानोंने अब हम 'कपट' विषयक दूसरेआक्षेप- नियत कर रखे हैं। परन्तु इन सर्वमान्य पर विचार करेंगे। यह सच है कि इस तत्वोंके कुछ अपवादक प्रसंग हैं या नहीं? माक्षेपका उद्गम महाभारतमें है। परन्तु उदाहणार्थ, यदि कोई आततायी अधर्मसे यह कल्पना 'भारत' में नहीं है, वह भारती- हमें मारने आवे तो क्या हम उसे मार या कथाकी भ्रमपूर्ण धारणाके कारण पीछेसे उसके हाथसे हम मरें ? अहिंसा-मतकी निकली है। भारतमें वर्णन है कि श्रीकृष्ण ने | अत्युक्ति करनेवाला तो यही कहेगा कि भीष्म, द्रोण आदि लोगोंको पांडवोके हाथ- | हमें ही मरना चाहिए: हम मरे या वह