सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • महाभारत ग्रन्धका काल *

६७ किसी किसी स्थानमें निर्वाण शब्दका, असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् । प्रयोग किया गया है, जैसे शान्ति पर्व अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहेतुकम् ॥ अध्याय १६७ श्लोक ४६। यहाँ भी बौद्ध इस श्लोकमें बौद्ध मतका दिग्दर्शन मतका ही बोध होता है। सारांश, महा- किया गया है। परन्तु सच बात यह है भारतके विस्तृत भागमें बौद्ध मतका वर्णन कि उक्त वर्णन बौद्धोका नहीं, चार्वाको पाया जाता है। जैन मतका उल्लेख स्पष्ट अथवा बार्हस्पत्योंका है। तैलङ्ग प्रभृति है। आदि पर्वमें नग्न-क्षपणकका उल्लेख विद्वानोंकी यही राय है कि बौद्ध लोग है। इसी प्रकार अन्य स्थानोंमें नग्न, दिग- 'अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः म्बर, पागलोंके समान घूमनेवाले, इत्यादि के स्वभावके नहीं थे । 'आज इस लोगोंका उल्लेख है। इतना होने पर भी शत्रुको मार गिराया, कल उसको मारूँगा' स्पष्ट रीतिसे नामका उल्लेख नहीं किया इत्यादि गर्वोक्ति बौद्धोंके सम्बन्धमें गया है । यहाँ यह कह देना आवश्यक है नहीं कही जा सकती। 'ईश्वरोऽहं अहं. कि जैन और बौद्ध मतोंके पहले उन्होंके भोगी सिद्धोऽहं बलवान सुखी' ऐसे मतोंके समान अन्य मत प्रचलित थे। | उद्गार उनके मुखसे नहीं निकल सकते। यदि यह मान लिया जाय कि महाभारत- उनका तो सबसे बड़ा पुरुषार्थ यही था में बौद्ध और जैन मतोंका उल्लेख है.तो कि संसारको छोडश्ररगयमें जाकर स्वस्थ कोई हर्ज नहीं। महाभारतके समयका और ध्यानस्थ बैठे रहे। भजन्ते नाम-यस्ते निश्चय करनेके लिये यह एक अच्छा दंभेनाविधिपूर्वकम' यह वर्णन भी उनके साधन है। इससे यह सिद्धान्त किया जा विषयमें नहीं हो सकता, क्योंकि वे यज्ञके सकता है कि ईसवी सनके पहले ४०० कट्टर शत्र थे । यह वर्णन चार्वाकोंके वर्षके इस पार महाभारतकी रचना हुई सम्बन्धम भली भाँति उपयुक्त होता है। है। यह सिद्धान्त हमारे निश्चित किये हुए जो चार्वाक और श्रासुर यह मानते थे समयके विरुद्ध नहीं है। हमने तो यही कि शगेरके भस्म हो जाने पर आगे कुछ प्रतिपादित किया है कि बौद्ध और जैन भी नहीं रह जाता, इस शरीरके रहते धर्मके प्रसारसे ही भारतको महाभारतका ही सुग्वका जो उपभोग हो सकता हो स्वरूप देनेकी आवश्यकता हुई थी। वह कर लेना चाहिये, उन्हीं के सम्बन्ध यहां अब एक अत्यन्त महत्त्वके प्रश्न- यह वणेन शाभा दे सकता है। अब देखना का विचार किया जायगा। भगवद्गीता चाहिये कि उक्त श्लोकमें बौद्ध मतोका महाभारतका एक बहुत प्राचीन भाग है। उल्लेख है या नहीं। 'जगत् अनीश्वर है। कुछ लोगोंकी राय है कि इस भगवद्गीता- यह मत बौद्धोका नहीं किन्तु चार्वाकोंका में बौद्ध मतका खण्डन किया गया है। है । वौद्ध लोग इस विषयका विचार ही अर्थात्, इससे यह सिद्ध करनेका प्रयत्न नहीं करते कि ईश्वर है या नहीं । वे किया जाता है कि भगवद्गीता मूल भारत- इस बानको भी नहीं मानते कि जगत् में भी न होकर बौद्ध धर्मके बादकी यानी असत्य है अथवा मिथ्या । वे लोग तो महाभारतके समयकी है। परन्तु यह जगतको सत्य, पर क्षणिक. मानते हैं। राय गलत है। इन लोगोंका कथन है कि यह सच है कि चार्वाक जगत्को असत्य भगवगीतामें श्रासुर स्वभावका जो वर्णन नहीं मानते थे परन्तु असन्य शब्दका है, वह बौद्ध लोगोंका ही है: अर्थात्-. अर्थ 'नास्ति सन्यं यम्मिन' होना चाहिये,