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पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/४६

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(४६)

ईश्वर के यहाँ से मिली है, उसे मोल लेने की मेरी इच्छा नहीं। सच पूछिये तो तुम्हारे जैसे नीच रोजगार करने वालों का गला काटना ही मेरा कर्तव्य है। पर इस काम के लिए जितना मुझे अधिकार है, उतना ही तुमको मेरी स्वतंत्रता छीन लेने का है।"

यह सुनते ही उस बूढ़े व्यापारी की नाड़ी ठंडी हो गयी। क्रोध से लाल होकर वहाँ से हट गया और उस गुलाम को छल करने को आरंभ किया। उसके गले में पट्टी बाँधकर दिन भर नीच और कठोर काम कराने लगा। परन्तु दैव योग से यह हकीकत खुरासान के बादशाह अलप्तगीन के कानों तक पहुँची। क्यों न हो, भक्तों का नसीब कभी-न-कभी जागता ही है। बस यही कारण है कि बादशाह ने बहुत-सा द्रव्य देकर उस गुलाम को अपने पास रख लिया।

(तीसरा भाग)

इस प्रकार से वह पथिक बादशाह के महल में पहुँचा। पहिले-पहल तो उसे दूसरे गुलामों के साथ महल के छोटे-मोटे कामों पर रखा गया। फिर उसकी चतुराई और होशियारी देखकर अलप्तगीन ने उसको अपने खास गुलामों में रख लिया। तब से वह निरन्तर बादशाह के समीप रहने लगा। थोड़े ही दिनों में बादशाह बहुत खुश हो गया और उसको एक तरक्की की जगह दे दी। इस गुलाम में बहुत कुछ ऊँचे दर्जे की बुद्धि है––यह सोचकर एक दिन उसने उसका जन्म-वृत्तान्त पूछा। गुलाम ने कहा––

"ऐ शाहंशाह! मुझ गरीब की हकीकत क्या पूछते हो। आज मैं यहाँ गुलामी कर रहा हूँ, उसमें कुछ शक नहीं। पर आज तक मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया है कि जिससे मेरे कुल को बट्टा लगे। मैं गरीब हूँ, तथापि स्वतन्त्र हूँ। जब ईरान का बादशाह यजीदजद