अवसर को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी,
मथुरा प्रसन्न है, दुलारी भी प्रसन्न है, बाल-वृन्द यात्रा के आनन्द में खाना-पीना तक
भूले हुए है, तो उसके जो में आता, वह भी इसी भांति निन्द्र रहे, मोह और
ममता को पैगें से कुचल डाले, किन्तु वह ममता जिस खाद्य को खा-खाकर पलो
थी, उसे अपने सामने से हटाये जाते देखकर क्षुब्ध होने से न रुकती थी। दुलारी
तो इस तरह निश्चिन्त होकर बठी थी, मानों कोई मेला देखने जा रही है। नई-नई
चीजों को देखने, नई दुनिया में विचरने को उत्सुकता ने उसे क्रियाशून्य-सा कर दिया
था। प्यारी के सिर सारे प्रबन्ध का भार था। धोबी के घर से सब कपड़े आये हैं या
नहीं, कौन-कौन से बर्तन साथ जायेंगे, सफर खर्च के लिए कितने रुपयों को जरूरत
होगी, एक बच्चे को खाँसो आ रही थी, दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन
दोनों की औषधियों को पोसना-कूटना आदि सैकड़ों ही काम उसे व्यस्त किये हुए थे।
लड़कोरी न होकर भी वह बच्चों के लालन-पालन में दुलारी से कुशल थी। 'देखो,
बच्चों को बहुत मारना-पोटना मत, मारने से बच्चे जिद्दी और बेहया हो जाते हैं।
बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है, कभी उनके साथ खेलना पड़ता
है, कभी हंसना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे
चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो स्वभाव के
चञ्चल होते हैं। उन्हें किसी न किसी काम में फंसाये रखो। धेले का एक खिलौना
'इज़ार धुड़कियों से बढ़कर होता है।' दुलारी उपदेशों को इस तरह बेमन होकर
सुनती थी, मानों कोई सनककर बक रहा हो।
बिदाई का दिन प्यारी के लिए परीक्षा का दिन था। उसके जी में आता था,
कहीं चली जाय, जिसमें वह दृश्य न देखना पड़े। हा ! घड़ी-भर में यह घर सूना हो
जायगा ! वह दिन-भर घर में अकेलो पड़ी रहेगी। किससे हँसेगी-बोलेगो ? यह
खोचकर उसका हृदय कॉप जाता था। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था, उसको वृत्तियां
शिथिल होती जाती थी। वह कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और अपलक
नेत्रों से किसी वस्तु को ओर ताकने लगती थी। कभी अवसर पाकर एकान्त में जाकर
थोड़ा-सा रो आती थी। मन को समझा रही थी, वह लोग अपने होते तो क्या इस
तरह चले जाते ? यह तो मानने का नाता है। किसी पर कोई जबरदस्तो है ? दूसरों
के लिए जितना हो मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना हो मिले,