पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा––जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?
मेरी देह में आग लग गई। बोला––तो क्या जब तुम्हारे चरण नहीं आये थे, तब घर में चिराग़ न जलते थे?
अम्माँ ने आग को हवा दी––नहीं, तब सब लोग अँधेरे ही में पड़ रहते थे।
पत्नीजी को अम्माँ की इस टिप्पणी ने आपे से बाहर कर दिया। बोलीं––जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे भी इस घर में आये दस साल हो गये।
मैंने डाँटा––अच्छा चुप रहो, बहुत बढ़ो नहीं।
'ओहो! तुम तो ऐसा डाँट रहे हो, जैसे मुझे मोल ही लाये हो।'
'मैं कहता हूँ, चुप रहो।'
'क्यों चुप रहो। अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।'
'इसी का नाम पतिव्रत है?'
'जैसा मुँह होता है, वैसे ही बीड़े मिलते हैं।'
मैं परास्त होकर बाहर चला आया, और अँधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा, जब इस कुलच्छनी से मेरा विवाह हुआ था। इस अन्धकार में भी दस साल का जीवन सिनेमा-चित्रों की भाँति मेरे स्मृति-नेत्रों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं प्रकाश की झलक न थी, कहीं स्नेह की मृदुता न थी।
(२)
सहसा मेरे मित्र पण्डित जयदेवी ने द्वार पर पुकारा––अरे, आज यहाँ अँधेरा क्यों कर रखा है जी? कुछ सूझता ही नहीं। कहाँ हो?
मैंने कोई जवाब न दिया। सोचा––यह आज कहाँ से आकर सिर पर सवार हो गये।
जयदेव ने फिर पुकारा––अरे, कहाँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?
कहीं से कोई जवाब न मिला।
जयदेव ने द्वार को इतने जोर से झँझोड़ा कि मुझे भय हुआ, कहीं दरवाजा चौखट-बाजू समेत गिर न पड़े। फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना खल रहा था।
जयदेव चले गये। मैंने आराम की साँस ली। बारे शैतान टला, नहीं घण्टों सिर खाता।