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मानसरोवर

उन्होंने इस तरह तम्बोली का हाथ पकड़ लिया, जैसे घनिष्ठ परिचय हो और बोले-अच्छा, उनके लड़का भी है! कहाँ रहती हैं भाई, बता दो, तो जाकर सलाम कर आऊं। बहुत दिनों उनका नमक खाया है।

तम्बोली ने प्रमीला के घर का पता बता दिया। प्रमीला इसी मोहल्ले में रहती थी। सेठजी जैसे आकाश में उड़ते हुए यहाँ से आगे चले।

वह थोड़ी दूर गये थे कि ठाकुरजी का एक मन्दिर दिखाई दिया। सेठजी ने मन्दिर में जाकर प्रतिमा के चरणों पर सिर झुका दिया। उनके रोम-रोम से आस्था का स्रोत-सा बह रहा था। इस पन्द्रह वर्ष के कठिन प्रायश्चित्त में उनकी सन्तप्त आत्मा को अगर कहीं आश्रय मिला था, तो वह अशरण-शरण भगवान् के चरण थे। उन पावन चरणों के व्यान में ही उन्हें शान्ति मिलती थी। दिन-भर ऊख के करहू से जुते रहने या फावड़े चलाने के बाद जब वह रात को पृथ्वी की गोद में लेटते, तो पूर्व-स्मृतियाँ अपना अभिनय करने लगती। वह अपना विलासमय जीवन, जैसे रुदन करता हुआ उनकी आँखों के सामने आ जाता और उनके अंतःकरण से वेदना मे डूबी हुई ध्वनि निकलती-ईश्वर, मुझ पर दया करो। इस दया-याचना में उन्हें एक ऐसी अलौकिक शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती थी, मानो बालक माता की गोद में लेटा हो।

जब उनके पास सम्पत्ति थी, विलास के साधन थे, यौवन था, स्वास्थ्य था, अधिकार था, उन्हें आत्म-चिन्तन का अवकाश न मिलता था। मन प्रवृत्ति ही की ओर दौड़ता था, अभी इन विभूतियों को खोकर इस दीनावस्या में उनका मन ईश्वर की अरे, झुका। पानी पर जब तक कोई आवरण है, उसमे सूर्य का प्रकाश कहाँ?

वृह मन्दिर से निकलते ही थे कि एक स्त्री ने मन्दिर में प्रवेश किया। खूबचन्द का हृदय उछल पड़ा। वह कुछ कर्तव्य भ्रम से होकर एक स्तम्भ की आड़ में हो गये। यह प्रमीला थी।

इन पन्द्रह वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जब उन्हें प्रमीला की याद न आई हो। वह छायी उनकी आँखों में बसी हुई थी। आज उन्हें उस छाया और इन सत्य में कितना अन्तर दिखाई दिया। छाया पर समय का क्या असर हो सकता है। उस पर सुख-दुःख का बस नहीं चलता! सत्य तो इतना अभेद्य नहीं। उस छाया से वह सदैव प्रमोद का रूप देखा करते थे-आभूषण और मुस्कान और लज्जा से रजित। इस सत्य में उन्होंने साधक का तेजस्वी रूप देखा, और अनुराग में डूबे हुए स्वर को