'अच्छा, तो मैं भी चलती हूँ।'
जैसे कोई ज़िद्दी लड़का रोने के बाद अपनी इच्छित वस्तु पाकर उसे पैरों से ठुकरा देता है, उसी तरह लालाजी ने मुंह बनाकर कहा--तुम्हारा जी नहीं चाहता तो न चलो । मैं आग्रह नहीं करता।
'आप...नहीं तुम बुरा मान जाओगे।'
आशा गई लेकिन उमंग से नहीं । जिस मामूली वेष में थी, उसी तरह चल खड़ी हुई । न कोई सजौली साड़ी, जड़ाऊ गहने, न कोई सिगार, जैसे कोई विधवा हो।
ऐसी ही बातों पर लालाजी मन में झुमला उठते थे। व्याह किया था जीवन का आनन्द उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए दीपक मे तेल डालकर उसे और चटक करने के लिए । अगर दीपक का प्रकाश तेज न हुआ तो तेल डालने से लाभ ? न जाने इसका मन क्यों इतना शुष्क और नीरस है, जैसे कोई ऊसर का पेड़ हो, कितना ही पानी डालो, उसमें हरी पत्तियों के दर्शन न होगे । जड़ाऊ गहनों से भरी पेटारियां खुली हुई हैं, कहाँ-कहाँ से मॅगवाये, दिल्ली से, कलकत्ते से फ्रांस से । कैसी-कैसी बहु- मूल्य साड़ियां रखी हुई हैं । एक नहीं सैकड़ों। पर केवल सन्दूक में कीड़ों का भोजन बनने के लिए। दरिद्र-घर की लड़कियों में यही ऐब होता है। उनकी दृष्टि सदैव सकीर्ण रहती है । न खा सके, न पहन सके, न दे सकें। उन्हे तो खजाना भी मिल जाय तो यही सोचती रहेगी कि इसे खर्च कैसे करें।
दरिया की सैर तो हुई, पर विशेष आनन्द न आया ।
( ३ )
कई महीने तक आशा की मनोवृत्तियों को जगाने का असफल प्रयत्न करके लालाजी ने समझ लिया कि इसकी पैदाइश ही मुहर्रमी है । लेकिन फिर भी निराश न हुए। ऐसे व्यापार में एक बड़ी रकम लगाने के बाद वे उससे अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की वणिक प्रवृत्ति को कैसे त्याग देते ? विनोद की नयी-नयो योजनाएं पैदा की जाती-ग्रामोफोन अगर बिगड़ गया है, गाता नहीं, या साफ आवाज नहीं निक- लती, तो उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। उसे उठाकर रख देना तो मूर्खता है ।
इधर बूढा महराज एकाएक बीमार होकर घर चला गया था और उसकी जगह
उसका सत्रह-अठारह साल का जवान लड़का आ गया था---कुछ अजीव गवार
था, बिलकुल झगड़ उजड। कोई बात ही न समझता था। जितने फुलके बनाता