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मिश्रबंधु

पूर्व नूतन की अत्यधिक आवश्यकता है। कुछ महाशयों का विचार है कि यह ब्रजभाषा का युग नहीं है। हम इस मत के विरोधी हैं। हाँ, विना योग्यता के रचना स्तुत्य कभी न बनेगी । खड़ी बोली दिनोंदिन 'उन्नति करती जाती है, और भावों, प्रणालियों एवं भाषा, तीनो में नवीनता से मंडित होने से रुचिकर होती है । उपर्युक्त कवित्रों के पृथक्-पृथक् कथन यहाँ नहीं किए जाते हैं, क्योंकि आगे चलकर ऐसा किया ही जायगा, और इनमें से बहुतों की कृतियों के उदाहरण देदिए गए हैं, जिससे पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं कि उन लोगों में कैसा कवित्व-चमत्कार है। आजकल की कविता में देश-प्रेम अधिकता से देख पड़ता है, जो योग्य भी है। प्राचीन विषय धीरे-धीरे छूटते जा रहे हैं। कोरे मनोरंजक विषय कम होकर समाज का ध्यान उपयोगी विषयों पर जा रहा है । संवत् १९६० तक की कविता में खड़ी बोली के सामने ब्रजभापा का पथ में बहुत अधिक प्रयोग है। प्राचीन टीकाकारों में सूरत मिश्र, कृष्ण कवि, सरदार, गुलाव चारण, सीतारामशरण, ज्वालाप्रसाद मिश्र, विनायकराव, रामेश्वर भट्ट आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। पूर्व नूतन काल में जगन्नाथदास रनाकर (१९४८), बजरल भट्टाचार्य (१९५७), लाला भगवानदीन (१९५७), श्यामसुंदरदास खत्री ( १६५७) आदि के नाम याते हैं । रक्षाकरजी ने बिहारी-रत्नाकर मैं विहारी-सतसई की सर्वमान्य अथच पांडित्य- पूर्ण टीका की, तथा पाट-शोधन में भी रलाध्य श्रम किया। लाला भगवानदीन ने भी विहारी और केशवदास पर श्रम किया। भट्टा- चार्य ने अनेक टीका-ग्रंथ रचे । श्यामसुंदरदास ने चंद कृत रासो की पाद-टिप्पणी आदि पंड्याजी के साथ लिखीं। हम (श्याम- विहारी मित्र तथा शुकदेवविहारी मिश्र) ने भूषण-ग्रंथावली की ऐतिहासिक एवं साहित्यिक टीका प्रचुर परिश्रम से लिखी, तथा पाठ- शोधन में भी श्रम किया, और गणेशविहारी मिश्र ने देव-ग्रंथावली