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मिश्रबंधु

सं० १९७५ उत्तर नूतन पाद-कंदुक मेरा मार्तड, बनाकर कर-कंदुक मैं चंद; तारकावलि गोली इव मान, खेलती फिरती अंवर मध्य ॥२॥ धरास्थित थावर-जंगम सर्व, कभी करती हूँ उथल-पथल, डगमगा जगती को जब कभी, मुस्किरा करती उल्कापात ॥ ३॥ गर्भ से सरिताओं को ठेल, खलबला कार में सारा नीर; विशद वारिधि के अंतस्तल, विषम बड़वानल देती फूक ॥ ४ ॥ धनंजय की धवलित धंधरि, धरा में धक, धक धक धधका; धूनमय धू धू धू प्रतिध्वनि, सुना करती हूँ अंधाधुंध ॥ ५ ॥ अवनि अंबुधि को करके नष्ट, शून्यमय दिग्दिगंत को कर; मौज आई, तो रचती हूँ, श्रोढ़ने को अंबर अंबर ॥ ६ ॥ प्रभंजन का मैं प्रबल प्रवाह, प्रथम कर देती हूँ प्रारंभ सृष्टि ले अंतरिक्ष की गोद, अवनि शंबर कर देती एक ॥ ७॥ हृदय में गिरि राजों के सदा, जलाती हूँ भीषण ज्वाला; हिमालय को भी मैं नित धुला, बहाती अगनित सरिताएँ ॥ ॥ सार-गर्भित बादल के दल, परस्पर टकरा देती जब 3 प्रतिध्वनित होता है अंबर, अंबुमय करती सारी औनि ॥६॥ विश्व-वीणा के टूटे तार, जोड़ गाती हूँ षट्-ऋतु राग ; मौन नीरव प्रलयंकर गान, श्रवण कर धारीता ब्रह्मांड ॥ १० ॥ विश्व के कोने-कोने में, जमा है मेरा ही अातंक, सृष्टि का उत्पादन-पालन, किया करती मैं ही संधार ॥ ११ ॥ निरंतर परिवर्तन में लीन, न लेती फहीं कभी विश्राम घोर रुचिकर प्रियकर सर्वदा, किया करती उत्थान-पतन ॥ १२ ॥ ( ३६६१) रामरखसिह सहगल, प्रयाग-निवासी। जन्म-काल-लगभग सं० १९५० । रचना-काल--सं० १९७५ । ग्रंथ--संपादक चाँद मासिक पत्रिका ।