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मिश्रबंधु

७० मिश्रबंधु-विनोद जनपद सोरठ देश में, राजकोट पुर रूप कीनी तहँ 'जीवन' सुकवि यह बावनी अनूप । नाम--(१०४१)(बारहठ) गंगादीन (जो), कृष्णगढ़ । परिचय-जाति के चारण, महाराजा रघुनाथसिंहजी के कृपा- पात्रों में, तथा उच्च कोटि के दरवारी कवि थे। रचना-काल-१८४० के लगभग । उदाहरण- शार्दूलसिंहजी की प्रशंसा में कवि ने कहा है- साल दैनहारी है सदैव सून शत्रु न को, कुटिल कपूतन को काल दैनहारी है; माल दैनहारी है मही के सब मंगन को, पूरण प्रजा को प्रतिपाल दैनहारी है। बांछित विशाल दैनहारी कवि गंग हू को, दीनन व्याल दुख टालदैनहारी है हरण हिमाल को दुसाल दैनहारी यह, शारदूल ग्रंथी को निहाल दैनहारी है। नाम--(६ ) जयदयाल (जो) (कवीश्वर), कृष्णगढ़। कविता-काल-सं० १८४० के आस-पास । नंथ-छप्पनभोग-चंद्रिका, प्रतिष्ठा-प्रकाश, रघुनाथरूपक, जलवए- इश्क का टीका तथा किशनगढ़ का इतिहास । परिचय-वृदजी के वंशज तथा महाराजा शार्दूलसिंहजी के दरबारी कवि थे। उदाहरण- चरन-कंज अलरन-सरन, हरन असित अपराध चंदौं श्रीगुरुदेव के, देवहु बुद्धि अगाध ।