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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०१

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ ९३ 1 यह आत्मा सर्वदा सत्य, तप, सम्यग्ज्ञान और ब्रह्मचर्यके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन योगिजन देखते हैं वह ज्योतिर्मय शुभ्र आत्मा शरीरके भीतर रहता है ॥५॥ सत्येनानृतत्यागेन मृषा-1 यह आत्मा ] सत्यसे अर्थात् अनृत वदनत्यागेन लभ्यः प्राप्तव्यः। यानी मिध्या-भाषणके त्यागद्वारा प्राप्त किया जा सकता है। तथा कि च तपसा हीन्द्रियमन- "मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रता ही परम तप है" इस स्मृतिके अनुसार एकाग्रतया "मनसश्चेन्द्रियाणां तप यानी इन्द्रिय और मनकी च ौकाग्र्यं परमं तपः” एकाग्रतासे भी [ इस आत्माकी उपलब्धि हो सकती है ], क्योंकि ( महा० शा० २५० । ४ ) इति आत्मदर्शनके अभिमुख रहनेके कारण स्मरणात् । तद्धयनुकूलमात्मदर्श- यही तप उसका अनुकूल परम साधन है-दूसरा चान्द्रायणादि नाभिमुखीभावात्परमं साधनंतपो साधन नही है नेतरच्चान्द्रायणादि। एप आत्मा [इसके सिवा] सम्यग्ज्ञान-यथार्थ आत्मदर्शन और ब्रह्मचर्य-मैथुनके लभ्य इत्यनुषङ्गः सर्वत्र । त्यागसे भी नित्य अर्थात् सर्वदा सम्यग्ज्ञानेन यथाभूतात्म- [इस आत्माकी प्राप्ति हो सकती है]; यहाँ 'एष आत्मा लभ्यः' दर्शनेन ब्रह्मचर्येण मैथुनासमा- : (इस आत्माकी प्राप्ति हो सकती है) इस वाक्यका सर्वत्र सम्बन्ध है। चारेण । नित्यं सर्वदा नित्यं सर्वदा सत्यसे', 'सर्वदा तपसे' और सत्येन नित्यं तपसा नित्यं सम्य- 'सर्वदा सम्यग्ज्ञानसे'इस प्रकार अन्त- ग्ज्ञानेनेति सर्वत्र नित्यशब्दोऽ- दीपिकान्यायसे (मध्यवर्ती दीपकोंके समान) सभीके साथ 'नित्य' न्तर्दीपिकान्यायेन अनुषक्तव्यः । शब्दका सम्बन्ध लगाना चाहिये; तप उसका -