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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१०४

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ शाठ्याईकारदम्मानृतवर्जिता रहित तथा सब ओरसे पूर्णकाम और तृष्णारहित ऋषिगण- ह्याप्तकामा विगततृष्णाः सर्वतो [अतीन्द्रिय वस्तुको ] देखनेवाले यत्र यस्मिंस्तत्परमार्थतत्त्वं सत्य- पुरुष [ उस पदपर ] आरूढ़ होते हैं, जिसमें कि सत्यसंज्ञक उत्कृष्ट स्योत्तमसाधनस्य सम्बन्धि साध्यं साधनका सम्बन्धी उसका साध्यरूप परमं प्रकृष्टं निधानं पुरुषार्थ- परमार्थतत्त्व जो पुरुषार्थरूपसे निहित होनेके कारण निधान है वह परम रूपेण निधीयत इति निधानं यानी प्रकृष्ट निधान वर्तमान है। वर्तते । तत्र च येन पथाक्रमन्ति 'उस पदमें जिस मार्गसे आरूढ होते हैं वह सत्यसे ही विस्तीर्ण हो स सत्येन वितत इति पूर्वेण रहा '-इस प्रकार इसका पूर्व- सम्बन्धः॥६॥ वाक्यसे सम्बन्ध है ॥६॥ परमपदका स्वरूप किं तत्किधर्मकं च तदित्यु- वह क्या है और किन धर्मों- च्यते-- वाला है ? इसपर कहा जाता है- बृहच्च तदिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत्सूक्ष्मतरं विभाति । दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके पश्यत्विहैव निहितं गुहायाम् ॥ ७ ॥ वह महान् दिव्य और अचिन्त्यरूप है । वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर भासमान होता है तथा दूरसे भी दूर और इस शरीरमें अत्यन्त समीप भी है । वह चेतनावान् प्राणियोंमें इस शरीरके भीतर उनकी बुद्धिरूप गुहामें छिपा हुआ है ॥ ७॥