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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१२

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ विद्याकर्मविरोधाच्च । न हि इसके सिवा विद्या और कर्मका ब्रह्मात्मैकत्वदर्शनेन विरोध होनेके कारण भी यही सिद्ध होता है । ब्रह्मात्मैक्यदर्शनके साथ ज्ञानकर्मविरोध. सह कर्म स्वमेऽपि तो कर्मोका सम्पादन स्वप्नमें भी निरूपणम् सम्पादयितुं शक्यम्। नहीं किया जा सकता, क्योंकि विधासम्पादनका कोई कालविशेष विद्यायाः कालविशेषाभावाद नहीं है और न उसका कोई नियत निमित्त ही है; अतः किसी काल- नियतनिमित्तत्वात्कालसङ्कोचानु- विशेषद्वारा उसका संकोच कर देना पपत्तिः। उचित नहीं है। यत्तु गृहस्थेषु ब्रह्मविद्या गृहस्थोंमें जो ब्रह्मविद्याका सम्प्रदायकर्तृत्व आदि लिङ्ग (अस्तित्व- सम्प्रदायकत्वादि लिङ्ग न सूचक निदर्शन ) देखा गया है वह तस्थितन्यायं बाधितुमुत्सहते । पूर्वप्रदर्शित स्थिरतर नियमको बाधित करनेमें समर्थ नहीं हो न हि विधिशतेनापि तमप्रकाश- सकता, क्योंकि तम और प्रकाशको एकत्र स्थिति तो सैकड़ों विधियोंसे योरेकत्र सद्भावः शक्यते कर्तु भी नहीं की जा सकती, फिर केवट किमुत लिङ्गः केवलैरिति । लिङ्गोंकी तो बात ही क्या है ? एवमुक्तसम्बन्धप्रयोजनाया इस प्रकार जिसके सम्बन्ध उपनिषच्छब्द-उपनिषदोऽल्पाक्षरं और प्रयोजनका निर्देश किया है ग्रन्थविवरणमारभ्यते। उस [ मुण्डक ] उपनिषद्की यह । संक्षिप्त व्याख्या आरम्भ की जाती य इमां ब्रह्मविद्यामुपयन्त्यात्म- है । जो लोग श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भावेन श्रद्धाभक्तिपुरःसराः आत्मभावसे इस ब्रह्मविद्याके समीप . निरुक्तिः