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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५४

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४६ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ जाते हैं । प्रभवमनुप्रजायन्ते तत्र चैव तथा जिस प्रकार घटादिके नष्ट होनेपर वे [ घटाकाशादि] छिद्र तमिन्नेवाक्षरेऽपि यन्ति देहोपाधि- लीन हो जाते हैं उसी प्रकार विलयमनुलीयन्ते घटादिविलय- देहरूप उपाधिके लीन होनेपर वे सब उस अक्षरमें ही लीन हो मन्विव सुषिरभेदाः। यथाकाशस्य सुषिरभेदोत्पत्ति जिस प्रकार छिद्रभेदोंकी उत्पत्ति और प्रलयमें आकाशका निमित्तत्व प्रलयनिमित्तत्वं घटायुपाधि- घटादि उपाधिके ही कारण है कृतमेव तद्वदक्षरस्यापि नामरूप- उसी प्रकार जीवोंकी उत्पत्ति और प्रलयमें नामरूपकृत देहोपाधिके कृतदेहोपाधिनिमित्तमेव जीवो- कारण ही अक्षरब्रह्मका निमित्तत्व त्पत्तिप्रलयनिमित्तत्वम् ।। १॥ है ॥१॥ नामरूपचीजभूतादव्याकृता-1 अपने विकारोंकी अपेक्षा महान् तथा नामरूपके बीजभूत अव्याकृत- ख्यात्स्वविकारापेक्षया परादक्ष- संज्ञक अक्षरसे भी उत्कृष्ट जो रात्परं यत्सर्वोपाधिभेदवर्जित- अक्षर परमात्माका आकाशके समान सब प्रकारके आकारोंसे मक्षरस्यैव खरूपमाकाशस्येव रहित 'नेति नेति' इत्यादि वाक्योंसे विशेषित एवं सम्पूर्ण औपाधिक सर्वमूर्तिवर्जितं नेति नेतीत्यादि- भेदोंसे रहित स्वरूप है उसे बतलाने- विशेषणं विवक्षनाह- की इच्छासे श्रुति कहती है- ब्रह्मका पारमार्थिक स्वरूप दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः । अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः॥२॥