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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/६८

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६. मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ गङ्गाद्याः सिन्धवो नद्यः सर्व- आदि अनेक रूपोंवाली नदियाँ भी रूपा बहुरूपा अस्सादेव पुरुषात् इसीसे प्रवाहित होती हैं । इसी सर्वा ओषधयो व्रीहियवाद्याः। पुरुषसे व्रीहि, यव आदि सम्पूर्ण ओषधियाँ तथा मधुरादि छः प्रकारका रसश्च मधुरादिः षड्विधो येन रस उत्पन्न हुआ है, जिस रससे रसेन भूतैः पञ्चभिः स्थूलैः । कि पाँच स्थूल भूतोंद्वारा परिवेष्टित परिवेष्टितस्तिष्ठते तिष्ठति यन्त- हुआ अन्तरात्मा -लिंगदेह यानी सूक्ष्म शरीर स्थित रहता है। यह रात्मा लिङ्गं सूक्ष्म शरीरम् । शरीर और आत्माके मध्यमें आत्मा- तद्धयन्तराले शरीरस्यात्मनश्चा- के समान स्थित है; इसलिये त्मवद्वर्तत इत्यन्तरात्मा ॥९॥ अन्तरात्मा कहलाता है ॥ ९ ॥ ब्रह्म और जगत्का अभेद तथा ब्रह्मज्ञानसे अविद्या-ग्रन्थिका नाश एवं पुरुषात्सर्वमिदं सम्प्रसू- इस प्रकार यह सब पुरुषसे ही तम् । अतो वाचारम्भणं विकारो उत्पन्न हुआ है; अतः विकार वाणी- का आरम्भ और नाममात्रके लिये नामधेयमनृतं पुरुष इत्येव तथा मिथ्या ही है, केवल पुरुष ही सत्यम् । अतः- सत्य है । इसलिये- पुरुष एवेदं विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परामृतम् । एतद्यो वेद निहितंगुहायां सोऽविद्याग्रन्थि विकिरतीह सोम्य ॥१०॥ यह सारा जगत्, कर्म और तप ( ज्ञान ) पुरुष ही है । वह पर और अमृतरूप ब्रह्म है । उसे जो सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तःकरणमें स्थित जानता है, हे सोम्य ! वह इस लोकमें अविद्याकी ग्रन्थिका छेदन कर देता है ॥ १० ॥ पुरुष एवेदं विश्वं सर्वम् । पुरुप ही यह विश्व-सारा न विश्वं नाम पुरुषादन्यत्कि- जगत् है; पुरुषसे भिन्न 'विश्व' कोई श्चिदस्ति । अतो यदुक्तं तदेवेदम् वस्तु नहीं है । अतः 'हे भगवन् !