सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४ मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक २ -इस प्रकार इस मूर्तामूर्तयोः स्थूलसूक्ष्मयोस्त- कोई सत् या असत्-मूर्त या अमूर्त अर्थात् स्थूल या सूक्ष्म है ही नहीं । द्वथतिरेकेणाभावात् । वरेण्यं और वही नित्य होनेके कारण वरणीयं तदेव हि सर्वस्य नित्य- सबका वरेण्य-वरणीय-प्रार्थनीय है। तथा प्रजाओंके विज्ञानसे परे त्वात्प्रार्थनीयम् । परं व्यतिरिक्त यान तिरिक्त विज्ञानात्प्रजानामिति व्यवहितेन [पर शब्द ] का व्यवधानयुक्त [प्रजानाम् ] पदसे सम्बन्ध है। सम्बन्धः; यल्लौकिकविज्ञानागोच- तात्पर्य यह कि जो लौकिक रमित्यर्थः । यद्वरिष्ठं वरतमं विज्ञानका अविषय है, और वरिष्ठ सर्वपदार्थेषु वरेषु तद्धयेकं यानी सम्पूर्ण श्रेष्ट पदार्थोंमें श्रेष्ठतम है, क्योंकि सम्पूर्ण दोपोंसे रहित ब्रह्मातिशयेन वरं सर्वदोपरहित- होनेके कारण एक वह ब्रह्म ही 1 अत्यन्त श्रेष्ठ है ॥ १ ॥ त्वात् ॥१॥ तथा- ब्रह्ममें मनोनिवेश करनेका विधान किं च- यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च यस्मिँल्लोका निहिता लोकिनश्च । तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वाङ्मनः । तदेतत्सत्यं तदमृतं तद्वेदव्यं सोम्य विद्धि ॥ २ ॥ जो दीप्तिमान् और अणुसे 'भी अणु है'तथा जिसमें सम्पूर्ण लोक और उनके निवासी स्थित हैं वही यह, अक्षर ब्रह्म है, वही प्राण है तथा वही वाक् और मन है । वही यह सत्य और अमृत है । हे सोम्य ! उसका [ मनोनिवेशद्वारा ] वेधन करना चाहिये; तू उसका वेधन कर ॥२॥ यदर्चिमद्दीप्तिमत, दीप्त्या जो अचिमत् यानी दीप्तिमान् है; ब्रह्मकी दीप्तिसे ही सूर्य आदि ह्यादित्यादि दीप्यत इति दीप्ति- देदीप्यमान होते हैं, इसलिये ब्रह्म -