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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८७

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ इत्यर्थः । न तु तस्य स्वतः प्रकाशित करता है, उसमें खतः प्रकाश करनेका सामर्थ्य है ही प्रकाशनसामर्थ्यम् । तथा न नहीं। इसी प्रकार वहाँ न तो चन्द्रमा या तारे हो प्रकाशित होते चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति हैं और न यह बिजली ही; फिर हमें साक्षात् दिखलायी देनेवाला कुतोऽयमग्निरसदोचरः। यह अग्नि तो हो ही कैसे सकता है ? किंबहुनाः यदिदं जगद्भाति अधिक क्या? यह जो जगत् भासता है वह खयं प्रकाशरूप तत्तमेव परमेश्वरं स्वतो भारूप- होनेके कारण उस परमेश्वरके प्रकाशित होने पर उसीके पीछे त्वाद्भान्तं दीप्यमानमनुभात्यनु- प्रकाशित-देदीप्यमान हो रहा है। । जिस प्रकार अग्निक संयोगसे जल दीप्यते । यथा जलोल्मुकाद्य- और उल्मुक ( अंगारा ) आदि । अग्निके प्रज्वलित होनेपर उसके निसंयोगादग्निं दहन्तमनुदहति कारण जलाने लगते हैं-खतः न स्वतस्तद्वत्तस्यैव भासा दीप्त्या नहीं जलाते उसी प्रकार यह सूर्य आदि सम्पूर्ण जगत् उस ( परब्रह्म ) सर्वमिदं सूर्यादि जगद्विभाति । के प्रकाश-तेजसे ही प्रकाशित होता है। यत एवं तदेव ब्रह्म भाति च क्योंकि ऐसी बात है, इसलिये यह ब्रह्म ही कार्यगत विविध विभाति च कार्यगतेन विविधेन प्रकाशसे विशेषरूपसे प्रकाशित हो भासातस्तस्य ब्रह्मणो भारूपत्वं रहा है। इससे उस ब्रह्मकी प्रकाशरूपता खतः ज्ञात हो जाती स्वतोऽवगम्यते । न हि स्वतोऽ- है । जिसमें स्वयं प्रकाश नहीं है विद्यमानं भासनमन्यस्य कर्तुं वह दूसरेको भी प्रकाशित नहीं