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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९७

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावा- नेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥ ४॥ यह, जो सम्पूर्ण भूतोंके रूपमें भासमान हो रहा है प्राण है । इसे जानकर विद्वान् अतिवादी नहीं होता । यह आत्मामें क्रीडा करने- वाला और आत्मामें ही रमण करनेवाला क्रियावान् पुरुष ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठतम है ॥ ४ ॥ योऽयं प्राणस्य प्राणः पर यह जो प्राणका प्राण परमेश्वर है वह प्रकृत [परमात्मा ] ही ईश्वरो ह्येष प्रकृतः सर्वैर्भूतैर्ब्रह्मा- सम्पूर्ण भूतों-ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त समस्त प्राणियोंके दिस्तम्बपर्यन्तैः, इत्थंभूतलक्षणे द्वारा अर्थात् सर्वभूतस्थ सर्वात्मा तृतीया, सर्वभूतस्थः सर्वात्मा होकर विभासित यानी विविध प्रकारसे देदीप्यमान हो रहा है। सन्नित्यर्थः; विभाति विविधं 'सर्वभूतैः' इस पदमें इत्थंभूतलक्षणा तृतीया* है । इस प्रकार जो दीप्यते । एवं सर्वभूतस्थं यः विद्वान् उस सर्वभूतस्थ प्राणको साक्षादात्मभावनायमहमस्मीति 'मैं यही हूँ' ऐसा साक्षात् आत्म- खरूपसे जाननेवाला है वह उस विजानन्विद्वान्वाक्यार्थज्ञानमात्रेण वाक्यके अर्थज्ञानमात्रसे भी नहीं होता । क्या नहीं होता ? [ इसपर स भवते भवति न भवतीत्येतत् कहते हैं-] अतिवादी नहीं किमतिवाद्यतीत्य सर्वानन्यान् होता । जिसका खभाव और सबका अतिक्रमण करके बोलनेका वदितुं शीलमस्येत्यतिवादी । होता है उसे अतिवादी कहते हैं । • इत्थंभूतलक्षणे (२ । ३ । २१) इस पाणिनिसूत्रसे यहाँ तृतीया विभक्ति हुई है । किसी प्रकारकी विशेषताको प्राप्त हुई वस्तुको जो लक्षित कराता है