( ५६ ) शत्रु पर उलट दिया अर्थात् घातक को मिलाकर उसे पर्वतेश्वर को मारने भेजा जिसमें वह सफल हुा । राक्षस ने मलयकेतु को पिता का बदला लेने के लिये उभाड़ा और वह इस सम्मति से प्रसन्न भी हुआ पर उसने यह कहकर नहीं माना कि चंद्रगुप्त ने बहुत से यवनों को नौकर रख लिया है, राजधानी में दुर्ग बनवाकर उसमें सेना रखकर सुरक्षित कर लिया है तथा प्रत्येक फाटकों पर हाथियों को रक्षार्थ रखा है और इधर इसके मित्र गजे चंद्रगुप्त के बल से डरकर या उसकी कृपा से संतुष्ट होकर अलग हो गए, जिससे उसका प्रभाव ऐसा जम गया है कि सफलता पूर्वक उसके विरुद्ध कोई प्रयत्न नहीं किया जा सकता। (ग) विष्णपुराण के अनुसार नंदवंश अंतिम क्षत्रिय राजवंश था। कलियुग के प्रारंभ में इनका राज्य था । नंदवंश के सर्वार्थसिद्धि नामक राजा बहुत प्रसिद्ध हुए । वक्रनासादि अनेक योग्य ब्राह्मण मंत्री थे पर उनमें राक्षस प्रधान था। राजा की दो रानियाँ थीं जिनमें एक सुनंदा चत्रियाणी थी और दूसरी मुरा नाम्नी शूद्रा थी पर अपने रूप लावण्य से राजा को अधिक प्रिय थी। एक दिन किसी तगेनिष्ठ ब्राह्मण का राजा ने आतिथ्य किया और चरयोदक को दोनों रानियों पर छिड़का। नव विंदु सुनंदा पर और एक मुरा पर पड़ा पर इसने उस विंदु को बड़े अाग्रह से ग्रहण किया जिससे वह तपस्वी बहुत प्रसन्न हुआ। इसे मौर्य नामक एक पुत्र हुआ। सुनंदा ने मांस का एक टुकड़ा प्रस्व किया जिसमें नौ गर्भ के चिन्ह थे। राक्षस ने इन्हें तैल में रखा और कुछ दिन रक्षा करने पर नौ बच्चे उत्पन्न हुए, जो नवनंद कहलाए । इन्होंने क्रमशः मगध का राज्य किया । मुरा का पुत्र सेनापति हुश्रा और उसे सौ पुत्र हुए, जिनमें चंद्रगुप्त मुख्य था। नंदगण मौर्य तथा उसके पुत्रों से द्वेष रखते थे। इस कारण उन्हें कैद ... दुढिराज के उपोद्धात का श्राशय ।