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पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३०७

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युगलागुलीय २६७ 'काले-गोरे का तो मैंने ख्याल नहीं किया श्रद्धा ! बस मैं ठगी सी खडी देखती रह गई ! उस समय मेरा मस्तिष्क विचारों से भर गया !' 'सच ! कौन थी वह ?' 'एक क्षीणकलेवरा नदी की स्वर्णधारा; पर्वतों से उतरकर मैदान में आई थी। बरसात में उसका बड़ा विस्तार रहता होगा। फैलाब उमका बहुत था, पर जलधारा तो पतली स्वर्णरेखा ही सी थी। उसके चारों तरफ सूखे रेत के टीले, खड्ड और मिट्टी के ढूह और उनके बीच वह बहती हुई स्वर्णप्रभा क्षीण- कलेवरा सलिलधारा ! जानती हो उस समय मेरे मन मे क्या विचार उदय हुए ?' 'तुम्ही कहो सखी! 'कि यह है नारी । और ये सूखे रेत के टीले, मिट्टी के दूह और खड्ड मब पुरुष हैं, जो रूखे-सूखे अपनी विशालता के घमण्ड में जहां के तहां खड़े हैं और उनके बीच यह स्रोतस्विनी नारी दोनों कूलों को स्तन्य पान कराती कलकल नाद करती अपनी सरल-सरल गति से बही चली जा रही है।' 'क्षीणकलेवरा उस तरला प्रवाहित पयस्विनी को तुमने नारी का विकल्प ठीक ही दिया रेखा, परन्तु उन बालू के हों को और मिट्टी के सूखे टीलो को तुम पुरुष कैसे कल्पित कर सकती हो ?' 'क्यों न करूं भला । क्या पुरुष-समाज उस निश्चल शुष्क बालू के टूहों की भांति निष्फल और अकर्मण्य नहीं है ? क्या उन्हें दीखता नहीं है कि उनके वामां- चल में नारी विनम्र सेविका की भांति अपने ही में संकोच-लाज से सिमटी स्वच्छ सुधा-स्रोत में बही जा रही है, एक क्षण विश्राम की बात तो दूर, मुड़कर पीछे देखने का भी उसे अवकाश नहीं है। उसका समूचा जीवन ही एक ध्रुव लक्ष्य की ओर अनवरत रूप में अग्रसर हो रहा है, और इन अकर्मण्य बालू के दूहों और मिट्टी के सूखे लोंदों को पैरों से कुचलते हुए, जिधर जल-स्रोत है, उधर ही लोग जाकर देखते हैं कि वहां सुषमा, छाया और हरियाली का प्रसाद फैला श्रद्धा ने हंसकर कहा- तूने ब्याह नहीं किया, इसीसे मैंने समझा था कि तु जड़ है, पर तूने सौन्दर्य ही नहीं, सत्य को भी परख लिया। 'ब्याह न करने से ही मैं जड़ हो जाऊंगी ? कहीं नारी जड़ होती है ? व्याह नहीं किया, पर नारी तो हूं।'