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पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/५६

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भिक्षुराज श्राचार्य द्वारा बौद्ध भूमि पर लिखित सब कहानियों में भिक्षराज सर्वाधिक प्रसिद्ध और कहानी के टेकनिक की दृष्टि से परिपूर्ण कहानी है । कहानी में सम्राट अशोक के तपस्वी पुत्र-पुत्री की यशोगाथा चित्रित है जो अत्यन्त भावशाली और सशक्त शैली में है। मसीह के जन्म से २५० वर्य प्रथम । नीम की ऋतु थी और संध्या का समय, जबकि एक तरणी काबोज के समुद्र-तट से दक्षिण दिशा की ओर धीरे- धीरे अनन्त सागर के गर्भ में प्रविष्ट हो रही थी। इस क्षुद्रा तरणी के द्वारा अनंत समुद्र की यात्रा करना भयंकर दुःसाहस था। वह तरणी हल्के, किंतु हड़ काष्ठफलकों को चर्म-रज्जु से बांधकर और वीच में वांस का बंध देकर बनाई गई थी, और ऊपर चर्म मढ़ दिया गया था ! वह बहुत छोटी और हल्की थी, पानी पर अधर तैर रही थी, और पश्री की तरह समुद्र की तरंगों पर तीब्र गति से उड़ी चली जा रही थी। तरणी में एक और कुछ खाद्य पदार्थ मृद्भांडों में घरा था, जिनका मुख बस्त्र से बंधा हुआ था। निकट ही बड़े-बड़े पिटारों में भूज-पत्र पर लिखित ग्रंथ भर रहे थे। तरणी के बीचोंबीच वारह मनुष्य बैठे थे। प्रत्येक के हाथ में एक-एक पत- वार थी, और वह उसे प्रबल वायु के प्रवाह के विपरीत दृढता से पकड़े हुए था। उनके वस्त्र पीतवर्ण थे, और सिर मुंडित--प्रत्येक के आगे एक भिक्षा- पात्र धरा था। उनके पैरों में काष्ठ की पादुकाएं थीं। तेरहवां एक और व्यक्ति था । उसका परिच्छद भी साथियों जैसा ही था । किन्तु उसकी मुख-मुद्रा, अन्तस्तेज और उज्ज्वल दृष्टि उसमें उसके साथियों से विशेषता उत्पन्न कर रही थी । उसकी दृष्टि में एक अद्भुत कोमलता थी, जो प्रायः पुरुषों में, विशेषकर युवकों में, नहीं पाई जाती। उसके मुख की गठन साफ और सुन्दर थी। उसके मुख पर दया, उदारता और विचारशीलता टपक रही थी।

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