पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९१

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उत्पत्ति प्रकरण।

फुरती है। जब तू चिदाकाश में अभ्यास करके प्राप्त होगी तब तुझको सब सृष्टि भासि आवेगी। वह जो सृष्टि है सो और के संकल्प में है जब उसके संकल्प में प्रवेश करे तो उसकी सृष्टि भासे, अन्यथा नहीं भासती जैसे एक के स्वम को दूसरा नहीं जान सकता वैसे ही और की सृष्टि नहीं भासती। जब तू अन्तवाहकरूप हो तब वह सृष्टि देखे। जब तक आधिभौतिक स्थूल पञ्चतत्त्वों के शरीर में अभ्यास है तब तक उसको न देख सकेगी, क्योंकि निराकार को निराकार ग्रहण करता है आकार नहीं ग्रहण कर सकता। इससे यह अधिभौतिक देह भ्रम है इसको त्यागकर चिदाकाश में स्थित हो। जैसे पक्षी आलय को त्यागकर आकाश में उड़ता है और जहाँ इच्छा होती है वहाँ चला जाता है वैसे ही चित्त को एकाग्र करके स्थूल शरीर को त्याग दे और योग अभ्यास कर आत्मसत्ता में स्थित हो। जब आधिभौतिक को त्यागकर अभ्यास के बल से चिदाकाश में स्थित होगी तब आवरण से रहित होगी और फिर जहाँ इच्छा करेगी वहाँ चली जावेगी और जो कुछ देखा चाहेगी वह देखेगी। हे लीले! हम सदा उस चिदाकाश में स्थित हैं। हमारा वपु चिदाकाश है इस कारण हमको कोई आवरण रोक नहीं सकता हमसे उदारों की सदा स्वरूप में स्थिति है और हम सदा निरावरण हैं कोई कार्य हमको आवरण नहीं कर सकता, हम स्वइच्छित हैं—जहाँ जाना चाहें वहाँ जाते हैं और सदा अन्तवाहक रूप हैं। तू जब तक आधिभौतिकरूप है तब तक वह सृष्टि तुझको नहीं भासती और तू वहाँ जा भी नहीं सकती। हे लीले! अपना ही संकल्प सृष्टि है। उसमें जब तक चित्त की वृत्ति लगी है उस काल में यह अपना शरीर ही नहीं भासता तो और का कैसे भासे? जब तुझको अन्तवाहकता का दृढ़ अभ्यास हो और आधिभौतिक स्थूल शरीर की ओर से वैराग्य हो तब आधिभौतिकता मिट जावेगी, क्योंकि भागे ही सब सृष्टि अन्तवाहकरूप है पर संकल्प की दृढ़ता से आधिभौतिक भासती है। जैसे जल दृढ़ शीतलता से वरफरूप हो जाता है वैसे ही अन्तवाहकता से आधिभौतिक हो जाते हैं—प्रमादरूप संकल्प वास्तव में