के निकट निर्जनस्थान और कुञ्ज में एक वृक्ष के ऊपर चढ़ बैठे और तप करने लगे। कुछ दिन तक वे केवल जल पानकर भोजन कुछ न करें और रात्रि दिन व्यतीत करें। फिर कुछ समय तक एक ही माली जलपान करने लगे और फिर उसका भी त्यागकर और फुरने से रहित हो वृक्ष की नाई बैठे रहे। निदान जब उनको तप करते त्रेता और द्वापर युग बीते तव शशिकलाधारी भवानीशंकर तुष्टमन होकर आये और क्या देखा कि श्री पुरुष दोनों वृक्ष पर बैठे हैं। तब उन्होंने शिवजी को देख के प्रणाम किया तो जैसे दिन की तपन से सकुची हुई चन्द्रमुखी कमलिनी चन्द्रमा के उदय होने से प्रफुल्लित हो आती है तैसे ही महामहिम की नाई शिवजी को देखकर वे प्रफुल्लित हुए—मानों आकाश और पृथ्वी दोनों रूप धर के मान खड़े हुए हैं। ऐसे भवानीशंकर ने उस बाह्मण से कहा, हे ब्राह्मण! मैं तुझ पर तुष्ट हुमा; जो कुछ तुझको वाञ्छित वर है सो तू माँग ्। हे ब्रह्माजी! जब ऐसे शिवजी ने कहा तब ब्राह्मण प्रफुल्लित होकर कहने लगा; हे भगवन्! हे देवदेवेश! मेरे गृह में दश पुत्र बड़े बुद्धिमान और कल्याणमूर्ति हों जिससे मुझको फिर शोक कदाचित् न हो। तब ईश्वर ने कहा ऐसे ही होगा। ऐसे कहकर जब शिवजी समुद्र के तरङ्गवत् अन्तर्धान हुए तब वे स्त्री पुरुष दोनों शिव के चरणों को प्रहण करके प्रसन्न हुए और जैसे सदाशिव और भवानी की मूर्ति है तैसे ही प्रसन्न होकर वे अपने गृह में पाये। निदान ब्राह्मणी गर्भवती हुई और समय पाके उसके दश पुत्र हुए। जैसे द्वितीया के चन्द्रमा की शोभा होती है तैसे ही उसकी शोभा हुई और षोड़श वर्ष के आकार की नाई ब्राह्मणी का आकार रहा, वृद्ध न हुई। वे बालक दशों संस्कारों को ले उपजे और जैसे वर्षा काल की बदली थोड़ी भी शीघ्र बड़ी हो जाती है तैसे ही वे थोड़े ही काल में बड़े हो गये। जब सात वर्षों के हुए तब वे सबवाणी के वेत्ता हुए और उनके माता भौर पितादोनोंशरीरत्याग के अपनी गति में पास हुए। वेदशों ब्राह्मण माता पिता से रहित हो गृह कोत्याग के कैलास के शिखर परजाचारपरस्पर विचार करने लगे कि वह कौन ईश्वर है जो परमेश्वररूप हे भोर वह कौन ईश्वरपद है जिसके