हे महाभाग! जो प्रपञ्च तुझको दृष्ट आता है वह जगतभ्रम है, में न कोई जगत् है, न कोई मित्र हे और न कोई वान्धव है जैसे मरुस्थल में बड़ी नदी भासती है परन्तु उसमें जल का एक बूंद भी नहीं होता तैसे ही वास्तव में जगत् कुछ नहीं। बड़े बड़े लक्ष्मीवान जो छत्र चामरों से सम्पन्न शोभते हैं वे विपर्यय होंगे क्योंकि यह लक्ष्मी तो चञ्चलस्वरूप है कोई दिनों में आभाव हो जाती है। हे भाई! तू परमार्थ दृष्टि से विचार देख, न तू है और न जगत् है, यह दृश्य भ्रांतिरूप है इसको हृदय से त्याग। इसी माया दृष्टि से बार बार उपजता है और विनशता है। यह जगत् अपने संकल्प से उपजा है, इसमें सत्यपदार्थ कोई नहीं। अज्ञानरूपी मरुस्थल में जगवरूपी नदी है और उसमें शुभ-अशुभरूपी तरङ्ग उपजते और फिर नष्ट हो जाते हैं।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे पावनबोधवर्णन
न्नामेकोनविंशतितमस्सर्गः॥१६॥
पुण्यक बोले, हे भाई! तेरे कई माता और कई पिता हो होकर मिट गये हैं। जैसे वायु से धूल के कणके उड़ते हैं तैसे ही बान्धव हैं, न कोई मित्र है, और न कोईशत्रु है सम्पूर्ण जगत् भ्रान्तिरूप है और उसमें जैसी भावना फुरती है, तैसे ही हो भासती है। बान्धव, मित्र, पुत्र आदिकों में जो स्नेह होता है सोमोह से कल्पित है और अपने मन से माता पितादिक संज्ञा कल्पी है। जगत प्रपञ्च में जैसे संज्ञा कल्पता है तैसे ही हो भासती है,जहाँ बान्धव की भावना होती है वहाँ बान्धव भासता है और जहाँ और की भावना होती है वहाँ और ही हो भासता है। जो अमृत में विष की भावना होती है तो अमृत भी विष हो जाता है सो कुछ अमृत में विषनहीं भावनारूप भासता है, तैसे ही न कोई वान्धव है और न कोई शत्रु है, सर्वदाकाल विद्यमान एक सर्वगत सर्वात्मा पुरुषस्थित है उसमें अपने और और की कल्पना कोई नहीं और जो कुछ देहादि हैं वे रक्त मांसादि के समूह से रचे हैं उनमें अहंसत्ता कोन है और अहंकार, चित्त, बुद्धि और मन कौन है? परमार्थदृष्टि से यह तो कुछ नहीं है, विचार किये से न तू है, न मैं हूँ, यह सब मिथ्या ज्ञान से भासते हैं। एक अनन्त चिदाकाश आत्मसत्ता सर्वदा है उसमें