पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७३२

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योगवाशिष्ठ।

कुछ चिन्ता नहीं होती और नौका का प्रभाव हो तो जल को कुछ चिन्ता नहीं, तैसे ही आत्मा और देह का सम्बन्ध असत्य है। जब ऐसे जानकर हृदय संग मे रहित हो तब देह का दुःख कुछ नहीं लगता। देह के दुःख में आपको दुःखी मानना, देह से अहंभावना करके आत्मा दुःखी होता है। जब देह में अभिमान को त्याग दे तब सुखी हो। ऐसे बुद्धीश्वर कहते हैं। जैसे जल और पत्थर इकट्ठे रहते हैं परन्तु भीतर संग का अभाव है इससे उन्हें कुछ दुःख नहीं होता तैसे ही हृदय से संगरहित हो तब देह इन्द्रियों के होते भी दुःख का स्पर्श कुछ न हो और निर्दुःख पद में प्राप्त हो। हे रामजी! जिसको देह में आत्माभिमान है उसको जन्ममरण दुःखरूप संसार भी है। जैसे बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है तैसे ही देहाभिमान से सुखदुःवरूप संसार उत्पन्न होता है और संसारसमुद्र में डूबता है। जो हृदय संग से रहित होता है सो संसारसमुद्र के पार हो जाता है। हे रामजी! जिसके हृदय में देहाभिमान है उसके चित्तरूपी वृक्ष में मोहरूपी अनेक शाखा उत्पन्न होती है और जिसका हृदय संग सेहत है उसका मोह लीन हो जाता है। उसको चित्तलीन कहते हैं। जिसका चित्त देहादिकों में बन्धवान् है उसको नाना प्रकार का भ्रमरूप जगत् भासता है और जिसका चित्त देहादिकों में बन्धवान् नहीं वह एक आत्मभाव को देखता है जैसे टूटी आरसी में अनेक प्रतिविम्व भासते हैं और साजी एक ही प्रतिविम्ब को ग्रहण करती है, तैसे ही संशययुक्त चित्त मैं नाना प्रकार का जगत् भासना है और शुद्ध चित्त में एक आत्मा ही भासता है। है रामजी! जो पुरुष व्यवहार करते हैं और संग से रहित हैं ऐसे निर्मल पुरुष संसार से मुक्त हैं और जो सर्वव्यवहार को त्याग बैठते हैं पर तप भी करते हैं और चित्त आसक्त है सो बन्धन में है। जो हृदय में संग से रहित है वह मुक्त है और अन्तरचित्त किसी पदार्थ में बन्ध है, वह बन्ध है। बन्ध और मुक्त का इतना ही भेद है। जिसका हृदय असंग है वह सब कार्यकर्त्ता भी अकर्त्ता है। जैसे नट सब स्वागों को धरता भी अलेप है तैसे ही वह पुरुष अलेप है। जो हृदय में अभिमान सहित है वह कुछ नहीं करता तो भी करता है। जैसे सर्वव्यवहार