त्याग करो, केवल चिदानन्द शान्तरूप जो तत्त्व है उसमें स्थित हो तब अद्वैतरूप तत्त्व स्वाभाविक भासेगा। जैसे बादलों के दूर हुए सूर्य स्वाभाविक भासता है तैसे ही फुरने से रहित होने से चेतनतत्त्व भास आवेगा और जैसे प्रकाशरूप चिन्तामणि स्वाभाविक भासि आती है तैसे ही आत्मप्रकाश स्वाभाविक भास आवेगा। फिर जो कुछ क्रिया तुम करोगे वह सब फलदायक न होगी। जैसे कमल को जल नहीं स्पर्श करता है तैसे तुमको क्रिया न स्पर्श करेगी और चित्त आत्मगति निर्वाण-रूप होगा और क्रियाकर्त्ता भी अकर्त्ता रहोगे।
इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे शान्तसमाचारयोगोपदेशो
नाम चतुःषष्टितमस्सर्गः ॥ ६४ ॥
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! असंसक्त पुरुष ध्यान करे अथवा व्यवहार करे वह सदा ध्यान में स्थित और शोक से रहित है। बाहर से यदि वह क्षोभमान दृष्टि आता है परन्तु हृदय उसका सर्वकलना से रहित है और वह सम्पूर्ण लक्ष्मी से शोभता है। हे रामजी! जिस पुरुष का चित्त चैत्य से रहित अचल है सो विगतज्वर है, उसको कुछ दुःख स्पर्श नहीं करता। जैसे जल कमलों को स्पर्श नहीं करता और औरों को निर्मल करता है और जैसे निर्मली मलीन जल को निर्मल करती है तैसे ही वह जगत् को निर्मल करता है। जो आत्मतत्व में लीन है सो क्षोभमान भी दृष्टि आता है परन्तु क्षोभ, उसे कदाचित् नहीं। जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब क्षोभमान दृष्टि आता है परन्तु सूर्य को कदाचित् क्षोभ नहीं, तैसे ही ज्ञानवान् का चित्त क्षोभायमान दृष्टि आता है पर क्षोभ उसे कदाचित् नहीं। हे रामजी! आत्मारामी पुरुष बाहर से मोर के पुच्छवत् चञ्चल भी दृष्टि आता है परन्तु हृदय से सुमेरु पर्वत की नाई अचल है। जिनका चित्त आत्मपद में स्थित हुआ है उनको सुख दुःख अपने वश नहीं कर सकते। जैसे स्फटिक को प्रतिबिम्ब का रङ्ग नहीं चढ़ता तैसे ही ज्ञानवान् को सुख दुःख का रङ्ग नहीं चढ़ता। जिस पुरुष को परावर ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है उसका चित्त राग द्वेष से रञ्जित नहीं होता। जैसे आकाश में बादल दृष्टि आता है परन्तु आकाश से स्पर्श नहीं करता तैसे ही ज्ञान-