पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७१०

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जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन-निर्दाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५९१) है, ताते श्वानसों नीच है ।। है राजन् । परम अनर्थका कारण देहाभिमान है, देहके अभिमान कारकै परम आपदाको प्राप्त होता है, सो मुर्ख नहीं मानौ कौआ है, कौआ क्या करता है, सबते ऊंचे टासपर जाय बैठता है, अरु कां कां करता है, मानौ मुखकी ध्वजा विराजती है। हे राजन् ! कमलकी खान तालके निकट एक कौआ जाय निकसा सो क्या देखा कि भंवर कमलनकी सुगंधि बैठे ले रहे हैं, तिनको देखकर हँसने लगा अरु को कां शब्द करत भया, तिसको देखि सँवरे हँसे कि यह- कमलेकी सुगंधिको क्या जानै, तैसे जिज्ञासी भंवरेवत् हैं;परमार्थरूपी सुगंधिको लेते हैं, अरु जो अज्ञानीरूपी कौए हैं,सो परमार्थरूपी सुगंधिको नहीं जानते इस कारणते मूर्खको देखिकर जिज्ञासी हँसते हैं, जो आत्मरूपी सुगंधिको नहीं जानते अरे कौआ | तू क्यों हंस की रीस करता हैं, इस तौ हीरा मोती चुगनेहारे हैं अरु तू नीच स्थानोंके सेवनेहारा है, मंत्रीने कहा हे भंवरे ! कोयल | तुम कमलको देखकर क्या प्रसन्न होते हो, मन्न तब होवहु, जब वसंत ऋतु हो, यह तौ वषांकालका समय है, यह फूल गड़ेकर नष्ट हो जानेगा ॥ हे राजन् ! कोयलरूपी जिज्ञासी हैं, तिनको यह उपदेश है ॥ हे जिज्ञासी ! जो सुदर पदार्थ तुमको दृष्ट आते हैं, इनको देखिकर तुम क्यों प्रसन्न होतेहौ, तब प्रसन्न होने जो यह सत्य हो, यह तौ मिथ्या हैं, अविद्या कारकै रचे हैं, तुम क्यों प्रसन्न होते ही अपने कुलविषे जाय बैठहु, अज्ञानीको माग छोड़ि देवहु, जैसे कौआ हंसविषे जाय बैठता है, तो भी उसका चित्त अपने गंदगीके भोजनविषे होता है, जो हँसका आहार मोती है, तिन मोतीकी ओर देखता भी नहीं, तैसे अज्ञानी जीव कदाचित् संतकी संगतिविधे। जाय भी बैठता है, तो भी उसका चित्त विषयकीओर भ्रमता फिरताहै, स्थिर नहीं होता, अरु जैसे कोयलका बच्चा कौ भाको माता पिता जानकरि उनविषे जाय बैठता है, तब उनकी संगतिकार यह भी गंदगीके भोजन करनेहारा हो जाता है, तिसको वजन करते हैं, रे बेटा ! तू कौआकी संगति मत बैठहु, अपने कुलविषे बैठ,काहेते कि तैराभी नीच आइार हो जावैगा, तैसे जिज्ञासी जो अज्ञानीका संग करता है, तब