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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१४३

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144 / योगिराज श्रीकृष्ण
 

आचरण करता है और इसलिए शुद्ध अन्तःकरण रखता है वही प्रसाद अर्थात् आनन्द को प्राप्त हो सकता है ॥64॥

अर्थ–इसी आनन्द में सब दुखों का नाश हो जाता है अर्थात् सब दुःख दूर हो जाते हैं। अस्तु, स्थिर बुद्धि वही मनुष्य है जिसका मन आनन्द से परिपूर्ण है ॥65॥

प्रश्न–स्थिर बुद्धि होने का क्या फल है?

उत्तर–परम पद की प्राप्ति अर्थात् मुक्ति।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥51॥

अर्थ–मुनि लोग बुद्धि योग को प्राप्त कर कर्मों के फलों को यहाँ ही त्याग देते हैं और जन्म के बंधनों से मुक्त होकर उस पद को प्राप्त करते हैं जिसमें कोई व्याधि नहीं, अर्थात् अमृतमय मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥51॥

इसलिए कृष्ण महाराज का वचन है—

योगस्थः कुरु कर्म्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समोभूत्वा समत्वंयोग उच्यते ॥48॥

अर्थ–हे धनंजय (अर्जुन) ईश्वरीय इच्छा में योग करता हुआ तू राग का त्याग कर। सिद्धि और असिद्धि को एक सा जानकर तू कर्मों को कर, क्योंकि इसी समता का नाम योग है ॥48॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥

अर्थ–न तुझे कर्मों से मतलब है न उनके फलों से। अस्तु, कर्मों के फल को अपना उद्देश्य मत बना और न अकर्म की अवस्था से दिल लगा (अर्थात् न दिल में यही ठान ले कि कर्म नहीं करना चाहिए)। हे अर्जुन, सुख-दुख, हानि-लाभ और हार-जीत को एक सा समझकर लड़ाई के लिए कमर बाँध, क्योंकि उसी से तू पाप से बच सकता है ॥47॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥38॥

तीसरे अध्याय के 8वें श्लोक में फिर यही बात दोहराई गई है।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्मज्यायोह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः ॥8॥

अर्थ–अस्तु, तू सत्य कर्म कर क्योंकि कर्म करना अकर्म से कहीं उत्तम है। बिना कर्म किये तो शरीर-यात्रा भी नहीं हो सकती ॥8॥

श्लोक 15 में बतलाते हैं कि यह कर्म किस तरह जाना जाता है।

कर्मब्रह्मोद्‍भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्‍भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥15॥

अर्थ–कर्म वेद से जाना जाता है और वेद उस अनादि परमेश्वर के बनाये हुए हैं। ॥15॥