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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/९

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ग्रन्थकार लाला लाजपतराय/7
 


गये। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। लालाजी ने यों तो समाज-सेवा का कार्य हिसार में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, जहाँ उन्होने लाला चंदूलाल, प० लखपतराय और लाला चूड़ामणि जैसे आर्यसमाजी कार्यकर्ताओं के साथ सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया, किन्तु लाहौर आने पर वे आर्यसमाज के अतिरिक्तत राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। 1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिसकी अध्यक्षता मि० जार्ज यूल ने की थी। 1906 मे वे प० गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड गये। यहाँ से वे अमेरिका चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहाँ के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी।

लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों--लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षों तक कांग्रेस ने एक राजभक्त संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्षष मे एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होते और विनम्रतापूर्ववक शासन के सूत्रधारों (अग्रेजों) से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या मे प्रविष्ट करने की याचना करते। 1905 मे जब बनारस मे सम्पन्न हुए कांग्रेस के अधिवेशन मे ब्रिटिश युवराज के भारत-आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उसका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच से यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी।

1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह (शहीद भगतसिंह के चाचा) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर मे नजरबंद कर दिया, किन्तु देशवासियो द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुनः स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया। लालाजी के राजनैतिक जीवन की कहानी अत्यन्त रोमाचक तो है ही, भारतवासियों को स्वदेश-हित के लिए बलिदान तथा महान् त्याग करने की प्रेरणा भी देती है।


जन-सेवा के कार्य

लालाजी केवल राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता ही नही थे, उन्होंने जन-सेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा था। जब 1896 तथा 1899 (इसे राजस्थान में छप्पन का अकाल कहते है, क्योकि यह विक्रम का 1956 का वर्ष था) में उत्तर भारत में भयंकर टुप्काल पड़ा तो लालाजी ने अपने साथी लाला हंसराव के सहयोग से अकालपीड़ित लोगों को सहायता पहुँचाई। जिन अनाथ बच्चो