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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६५

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योगप्रदीप
 

और अचाञ्चल्यसे भी एक हदतक कुछ काम बनता ही है। समर्पणका अर्थ है—अपने अन्दरकी प्रत्येक वस्तुको भगवान् के सौंप देना, हम जो कुछ हैं और जो कुछ हमारे पास है यह सब भगवान् पर चढ़ा देना, अपनी किसी कल्पना, वासना या आदतको लिये अड़े न रहना बल्कि अपनी वृत्तिको ऐसा बनाना कि उनके स्थान में भागवत सत्य अपना ज्ञान, सङ्कल्प और कर्म स्थापित कर दे।

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सदा भागवत शक्तिके स्पर्शमें रहो। तुम्हारे लिये सबसे अच्छी बात यही है कि तुम केवल इतना ही करो, और भागवत शक्तिको अपना कार्य करने दो; जहाँ कहीं जरूरी होगा वहाँ वह निकृष्ट शक्तियोंको अधिकृत कर लेगी और उन्हें शुद्ध करेगी; और कभी वह तुम्हें उनसे खाली कर देगी और तुम्हारे अन्दर अपने आपको भर देगी। परन्तु यदि तुम अपने मनको ही अगुआ बनने दोगे जिसमें वही तुम्हारे लिये सोचे-विचारे और कर्त्तव्यका निश्चय करे तो भागवत शक्तिसे तुम्हारा सम्पर्क छूट जायगा और निकृष्ट प्राण-शक्तियाँ उच्छृङ्खल होकर अपनी ही मनमानी करने लगेंगी और सारा काम ही संकर और विकर्मको प्राप्त होगा।

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