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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७६

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

के विकास और उसके, ऊर्ध्वस्थित आत्मलोकोंकी ओर, उद्घाटनपर निर्भर करता है। इसीके साथ यह भी जानना चाहिये कि हृच्चक्रके खुलनेसे हृत्पुरुष अनावृत होता है और यही हृत्पुरुष क्रमशः अन्तःस्थित ईश्वर तथा ऊर्ध्वस्थित परम सत्यका बोध हमें कराता है।

हमारा जो परम आत्मा है यह हमारी इस व्यष्टि और इस शरीरके पीछे भी नहीं है, बल्कि ऊपर है और सर्वथा उसके परे है। अन्तश्चक्रोंमें सबसे ऊँचेपर जो चक्र है वह मस्तकमें है, जैसे सबसे गहरेमें जो चक्र है वह हृदयमें है; पर जो चक्र सीधे आत्माकी ओर उद्घाटित होता है वह मस्तकके ऊपर है, इस स्थूल शरीरके बिल- कुल बाहर―सूक्ष्म शरीरमें। इस आत्माके दो स्वरूप हैं और आत्मानुभूतिके फल इन्हीं दो स्वरूपोंके अनुसार होते हैं। एक स्वरूप है शान्त, विशाल शान्ति मुक्ति और निश्चल नीरवताकी अवस्था जिसमें शान्त आत्मा किसी भी कर्म या अनुभवसे विचलित नहीं होता, सब कर्मों और अनुभूतियोंको निर्द्वन्द्व समत्वसे धारण करता है पर स्वयं कारण बनता नहीं प्रतीत होता बल्कि उदासीन रहता है। दूसरा स्वरूप गतिमय है और इसकी अनुभूति विश्वात्मरूपसे होती है, इसमें आत्मा कर्मको केवल धारण नहीं करता बल्कि समस्त विश्वकर्मका कारण

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