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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/८६

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

सहज होता है। किसी ऐसे पुरुषका अनुशासन, जो स्वयं श्रीभगवान् से तदात्मभूत हो या जो श्रीभगवान्‌का ही प्रतिरूप हो, इस कठिन साधनामें अत्यावश्यक और अनिवार्य है।

यह जो कुछ लिखा गया इससे तुम्हें बहुत कुछ स्पष्टरूपसे यह जानने में मदद मिलेगी कि योग के मुख्य मार्गसे मेरा क्या अभिप्राय है। मैंने कुछ विस्तारसे ही लिखा है। पर, स्वभावतः ही इसमें केवल मूलगत बातें ही आयी हैं। देशकालपात्रके भेदसे सम्बन्ध रखनेवाली जो बातें हैं वे, साधक जब इस साधनाको करता चलेगा या यह हो कि साधना जब आप ही होती चलेगी, तब उठेंगी। आरम्भमें साधना की जाती है पर पीछे जब साधना के कार्यका सुनिश्चित अव्यर्थ आरम्भ हो लेता है तब साधना आप ही होती चलती है।

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अब ध्यानकी बात। सामान्य अवस्था यह है कि चेतना सर्वत्र फैली हुई, छितरी हुई, असंख्य पदार्थोंमें उलझी हुई इधर-उधर इस या उस विषयकी ओर दौड़ती भटकती हुई होती है। जब कोई काम स्थिर रूपसे करना होता है तब पहली बात यही की जाती है कि सर्वत्र छितरी हुई जो चेतना है उसे हम वापिस बटोर लाते हैं और

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