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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२२०

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सोफिया अपनी चिन्ताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिलकुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने लगी-सूरदास को इस विपत्ति से क्योंकर मुक्त करूँ? इसका उद्धार कैसे हो? अगर पापा से कहूँ, तो वह हर्गिज न सुनेंगे। उन्हें अपने कारखाने की ऐसी धुन सवार है कि वह इस विषय में मेरे मुँह से एक शब्द सुनना भी पसन्द न करेंगे।

बहुत सोच-विचार के बाद उसने निश्चय किया-चलकर इन्दु से प्रार्थना करूँ। अगर वह राजा साहब से जोर देकर कहेगी, तो संभव है, राजा साहब मान जायँ। पिता से विरोध करके उसे बड़ा दुःख होता था; पर उसकी धार्मिक दृष्टि में दया का महत्त्व इतना ऊँचा था कि उसके सामने पिता के हानि-लाभ की कोई हस्ती न थी। जानती थी, राजा साहब दीन-वत्सल हैं और उन्होंने सूरदास पर केवल मि० क्लार्क की खातिर वज्राघात किया है। जब उन्हें ज्ञात हो जायगा कि मैं उस काम के लिए उनकी जरा भी कृतज्ञ न हूँगी, तो शायद वह अपने निर्णय पर पुनः विचार करने के लिए तैयार हो जायँ। यहाँ ज्यों ही यह बात खुलेगा, सारा घर मेरा दुश्मन हो जायगा; पर इसकी क्या चिन्ता? इस भय से मैं अपना कर्तव्य तो नहीं छोड़ सकती।

इसी हैसबैस में तीन दिन गुजर गये। चौथे दिन प्रातःकाल वह इन्दु से मिलने चली। सवारी किराये की थी। सोचती जाती थी-ज्यों ही अन्दर कदम रखूँगा, इन्दु दौड़कर गले लिपट जायगी, शिकायत करेगी कि इतने दिनों के बाद क्यों आई हो। हो सकता है कि आज मुझे आने भी न दे। वह राजा साहब को जरूर राजी कर लेगी। न जाने पापा ने राजा साहब को कैसे चकमा दिया।

यही सोचते-सोचते वह राजा साहब के मकान पर पहुँच गई और इंदु को खबर दी। उसे विश्वास था कि मुझे लेने के लिए इंदु खुद निकल आयेगी, किंतु १५ मिनट इंतजार करने के बाद एक दासी आई और उसे अंदर ले गई।

सोफिया ने जाकर देखा कि इंदु अपने बैठने के कमरे में दुशाला ओढ़े, अँगीठी के सामने एक कुर्सी पर बैठी हुई है। सोफिया ने कमरे में कदम रखा, तब भी इंदु कुर्सी से न उठी, यहाँ तक कि सोफिया ने हाथ बढ़ाया तब भी रुखाई से हाथ बढ़ा देने के सिवा इंदु मुँह से कुछ न बोली। सोफिया ने समझा, इसका जी अच्छा नहीं है। बोली-"सिर में दर्द है क्या?"

उसकी समझ ही में न आता था कि बीमारी के सिवा इस निष्ठुरता का और भी कोई कारण हो सकता है।