सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२४५
रंगभुमि

यह युक्ति राजा साहब को विचारणीय जान पड़ी। बोले—"अच्छा, सोचूँगा।" इतना कहकर बाहर चले गये।

दूसरे दिन सुबह जॉन सेवक राजा साहब से मिलने आये। उन्होंने भी यहो सलाह दी कि इस मुआमले में जरा भी न दबना चाहिए। लड़ूँगा तो मैं, आप केवल मेरी पीठ ठोकते जाइएगा। राजा साहब को कुछ ढाढ़स हुआ, एक से दो हुए। सन्ध्या-समय वह कुँवर साहब से सलाह लेने गये। उनकी भी यही राय हुई। डॉक्टर गंगुली तार द्वारा बुलाये गये। उन्होंने यहाँ तक जोर दिया कि "आप चुप भी हो जायँगे, तो मैं व्यत्र-स्थापक सभा में इस विषय को अवश्य उपस्थित करूँगा। सरकार हमारे वाणिज्य- व्यव-साय की ओर इतनी उदासीन नहीं रह सकती। यह न्याय-अन्याय या मानापमान का प्रश्न नहीं है, केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का प्रश्न है।”

राजा साहब इंदु से बोले—"लो भई, तुम्हारी ही सलाह पक्की रही। जान पर खेल रहा हूँ।”

इंदु ने उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखकर कहा—"ईश्वर ने चाहा, तो आपकी विजय ही होगी।"