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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२४७

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रंगभूमि


'आज-कल में' आदि अनिश्चयात्मक शब्दों की आड़ लिया करते हैं। ऐसे वादे पूरे किये जाने के लिए नहीं, केवल पानेवालों को टालने के लिए किये जाते हैं। ताहिरअली स्वभाव से खरे आदमी थे। तकाजों से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से। उन्हें दूर से देखते ही उनके प्राण-पखेरू छटपटाने लगते थे। कई मिनट तक सोचते रहे, क्या जवाब दूँ, खर्च का यह हाल है, और तरक्की के लिए कहता हूँ, तो कोरा जवाब मिलता है। आखिरकार बोले—"दिन कौन-सा बताऊँ, चार-छ दिन में जब आ जाओगे, उसी दिन हिसाब हो जायगा।"

बजरंगी-"मुंशीजी, मुझसे उड़नघाइयाँ न बताइए। मुझे भी सभी तरह के गाहकों से काम पड़ता है। अगर दस दिन में आउँगा, तो आप कहेंगे, इतनी देर क्यों की, अब रुपये खर्च हो गये। चार-पाँच दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे, अभी तो रुपये मिले ही नहीं। इसलिए मुझे कोई दिन बता दीजिए, जिसमें मेरा भी हरज न हो और आपको भी सुबीता हो।"

ताहिर—"दिन बता देने में मुझे कोई उज्र न होता, लेकिन बात यह है कि मेरी तनख्वाह मिलने की कोई तारीख मुकर्रर नहीं है; दो-चार दिनों का हेर-फेर हो जाता है। एक हफ्ते के बाद किसी लड़के को भी भेज दोगे, तो रुपये मिल जायँगे।”

बजरंगी—"अच्छी बात है, आप ही का कहना सही। अगर अबकी वादा-खिलाफी कीजिएगा, तो फिर माँगने न आऊँगा।"

बजरंगी चला गया, तो ताहिरअली डींगें मारने लगे—"तुम लोग समझते होगे, ये लोग इतनी-इतनी तलब पाते हैं, घर में बटोरकर रखते होंगे, ओर यहाँ खर्च का यह हाल है कि आधा महीना भी नहीं खत्म होता और रुपये उड़ जाते हैं। शराफत रोग है, और कुछ नहीं।"

एक चमार ने कहा—"हजूर, बड़े आदमियों का खर्च भी बड़ा होता है। आप ही लोगों की बदौलत तो गरीबों की गुजर होती है। घोड़े की लात घोड़ा हो सह सकता है।"

ताहिर—“अजी, सिर्फ पान में इतना खर्च हो जाता है कि उतने में दो आदमियों का अच्छी तरह गुजर हो सकता है।"

चमार—"हजूर, देखते नहीं हैं क्या, बड़े आदमियों की बड़ी बात होती है।”

ताहिरअली के आँसू अच्छी तरह न पुँछने पाये थे कि सामने से ठाकुरदीन आता हुआ दिखलाई दिया। बेचारे पहले ही से कोई बहाना सोचने लगे। इतने में उसने आकर सलाम किया और बोला—"मुंशीजी, कारखाने में कब से हाथ लगेगा?"

ताहिर—"मसाला जमा हो रहा है। अभी इंजीनियर ने नकशा नहीं बनाया है, इसी वजह से देर हो रही है।"

ठाकुरदीन—“इंजियर ने भी कुछ लिया होगा। बड़ी बेइमान जात है हजूर, मैंने भी कुछ दिन ठेकेदारी की है; जो कमाता था, इंजियरों को खिला देता था। आखिर