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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३६४

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रंगभूमि


बजरंगी को तोड़कर जगवर ने ठाकुरदीन को घेरा। पूजा करके भोजन करने जा रहा था। जगधर को आवाज सुनकर बोला-"बैठो, खाना खाकर आता हूँ।”

जगधर-"मेरी बात सुन लो, तो खाने बैठो। खाना कहीं भागा नहीं जाता है। तुम भी भैरो की गवाही देने जा रहे हो?”

ठाकुरदीन-"हाँ, जाता हूँ। भैरो ने न कहा होता, तो आप ही जाता। मुझसे यह अनीत नहीं देखी जाती। जमाना दूसरा है, नहीं नवाबी होती, तो ऐसे आदमी का सिर काट लिया जाता। किसी की बहू-बेटी को निकाल ले जाना कोई हँसी-ठट्ठा है?"

जगधर-'जान पड़ता है, देवतों की पूजा करते-करते तुम भी अंतरजामी हो गये हो। पूछता हूँ, किस बात की गवाही दोगे?”

ठाकुरदीन-"कोई लुकी-छिपी बात है, सारा देस जानता है।"

जगधर-"सूरदास बड़ा गबरू जवान है, इसी से सुन्दरी का मन उस पर लोट-पोट हो गया होगा, या उसके घर रुपये-पैसे, गहने-जेवर के ढेर लगे हुए हैं, इसी से औरत लोभ में पड़ गई होगी। भगवान को देखा नहीं, लेकिन अकल से तो पहचानते हो। आखिर क्या देखकर सुभागी ने भैरो को छोड़ दिया और सूरे के घर पड़ गई?"

ठाकुरदीन-"कोई किसी के मन की बात क्या जाने, ओर औरत के मन की बात तो भगवान भी नहीं जानते, देवता लोग तक उससे त्राह-त्राह करते हैं!"

जगधर-“अच्छा, तो जाओ, मगर यह कहे देता हूँ कि इसका फल भोगना पड़ेगा। किसी गरीब पर झूठा अपराध लगाने से बड़ा दूसरा पाप नहीं होता।"

ठाकुरदीन-"झूठा अपराध है?"

जगधर-"झूठा है, सरासर झूठा; रत्तो-भर भी सच नहीं। बेकस की वह हाय पड़ेगी कि जिंदगानी भर याद करोगे। जो आदमी अपना गया हुआ धन पाकर लौटा दे, वह इतना नीच नहीं हो सकता।"

ठाकुरदीन-(हँसकर) “यही तो अंधे की चाल है। कैसी दूर की सूझी है कि जो सुने, चक्कर में आ जाय।"

जगधर-"मैंने जता दिया, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। रखोगे सुभागी को अपने घर में? मैं उसे सूरे के घर से लिवाये लाता हूँ, अगर फिर कभी सूरे को उससे बातें करते देखना, तो जो चाहना, सो करना। रखोगे?"

ठाकुरदीन-"मैं क्यों रखने लगा!"

जगधर—"तो अगर शिवजी ने संसार-भर का बिस माथे चड़ा लिया, तो क्या बुरा किया! जिसके लिए कहीं ठिकाना नहीं था, उसे सूरे ने अपने घर में जगह दी। इस नेकी की उसे यह सजा मिलनी चाहिए? यही न्याय है? अगर तुम लोगों के दबाव में आकर सूरे ने सुभागी को घर से निकाल दिया और उसकी आबरू बिगड़ी, तो उसका पाप तुम्हारे सिर भी पड़ेगा। याद रखना।"