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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४६६

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रंगभूमि


अपने सिर पड़ेगी, तो आटे दाल का भाव मालूम होगा। अपना लड़का हो, तो एक बात है; भाई-भतीजे किसके होते हैं?"

सूरदास-"पाला तो लड़के ही की तरह है, दिल नहीं मानता।"

जगधर-"अपना बनाने से थोड़े ही अपना हो जायगा?"

ठाकुरदीन भी आ गया था। जगधर की बात सुनकर बोला-"भगवान ने क्या तुम्हारे करम में काँटे ही बोना लिखा है, किसी का भी भला नहीं देख सकते!"

सूरदास-“उसके मन में जो आये, करे, पर मेरे हाथों तो यह नहीं हो सकता कि मैं आप खाकर सोऊँ और उसकी बात न पूछूँ।”

ठाकुरदीन-"कोई बात कहने के पहले सोच लेना चाहिए कि सुननेवाले को अच्छी लगेगी या बुरी। जिस लड़के को बालपन से पाला, और इस तरह पाला कि कोई अपने बेटे को भी न पालता होगा, उसे अब छोड़ दें?"

जमुनी-“अब के कलजुगी लड़के जो कुछ न करें, थोड़ा है। अभी दूध के दाँत नहीं टूटे, सुभागी ने घीसू को गोद खेलाया है, सो आज वह उसी से दिल्लगी करता है। छोटे-बड़े का लिहाज उठ गया। वह तो कहो, सुभागी की काठी अच्छी है, नहीं बाल-बच्चे हुए होते, तो घीसू से जेठे होते।”

यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर तीनों लौंडे नायकराम के दालान में बैठे हुए मंसूबे बाँध रहे थे। घीसू ने कहा—"सुभागी मारे डालती है। देखकर यही जी चाहता है कि गले लगा लें। सिर पर साग की टोकरी रखकर बल खाती हुई चलती है, सो जान ले लेती है। बड़ो काफर है!”

विद्याधर-"तुम तो हो घामड़, पढ़े-लिखे तो हो नहीं, बात क्या समझो। मासूक कभी अपने मुँह से थोड़े ही कहता है कि मैं राजी हूँ। उसकी आँखों से ताड़ जाना चाहिए। जितनी ही बिगड़े, उतनी ही दिल से राजी समझो। कुछ पढ़े होते तो जानते कि औरतें कैसे नखरे करती हैं।"

मिठुआ-"पहले सुभागी मुझसे भी इसी तरह बिगड़ती थी, किसी तरह हत्थे ही न चढ़े, बात तक न सुने पर मैंने हिम्मत करके एक दिन कलाई पकड़ ली; और बोला-“अब न छोडूंँगा, चाहे मार ही डाल। मरना तो एक दिन है ही, तेरे ही हाथों मरूँगा। यों भी तो मर रहा हूँ, तेरे हाथों मरूँगा, तो सीधे सरग जाऊँगा।" पहले तो बिगड़कर गालियाँ देने लगी, फिर कहने लगी-छोड़ दो, कहीं कोई देख ले, तो गजब हो जाय। मैं तेरी बुवा लगती हूँ। पर मैंने एक न सुनी। बस, फिर क्या था। उसी दिन से आ गई चंगुल में।"

मिठुआ अपनी प्रेम-विजय की कल्पित कथाए गढ़ने में निपुण था। निरक्षर होने पर भी गप्पें मारने में उसने विद्याधर को मात कर दिया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ ऐसा रंग भरता था कि मित्रों को उन गपोड़ों पर विश्वास आ जाता था। घीसू बोला-