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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५०

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रंगभूमि

रानी—“बस-बस, मैं इतना ही चाहती थी। आपने मुझे मोल ले लिया। आपसे ऐसी ही आशा भी थी। आप इतनी सुशीला न होतीं, तो लड़की में ये गुण कहाँ से आते? एक मेरी इंदु है कि बातें करने का भी ढंग नहीं जानतो। एक बड़ी रियासत की रानी है; पर इतना भी नहीं जानती कि मेरी वार्षिक आय कितनी है! लाखों के गहने संदूक में पड़े हुए हैं, उन्हें छूती तक नहीं। हाँ, सैर करने को कह दीजिए, तो दिन-भर घूमा करे। क्यों इंदु, झूठ कहती हूँ?”

इंदु—"तो क्या करूँ, मन-भर सोना लादे बैठी रहूँ? मुझे तो इस तरह अपनी देह को जकड़ना अच्छा नहीं लगता।”

रानी—"सुनी आपने इसकी बातें। गहनों से इसकी देह जकड़ जाती है! आइए, अब आपको अपने घर की सैर कराऊँ। इंदु, चाय बनाने को कह दे।"

मिसेज सेवक-"मिस्टर सेवक बाहर खड़े मेरा इंतजार कर रहे होंगे। देर होगी।"

रानी-“वाह, इतनी जल्दो। कम-से-कम आज यहाँ भोजन तो कर ही लीजिएगा। लंच करके हवा खाने चलें, फिर लौटकर कुछ देर गप-शप करें। डिनर के बाद मेरी मोटर आपको घर पहुँचा देगी।"

मिसेज सेवक इनकार न कर सकी। रानी ने उनका हाथ पकड़ लिया, और अपने राजभवन की सैर कराने लगीं। आध घंटे तक मिसेज सेवक मानों इंद्र-लोक की सैर करती रहीं। भवन क्या था, आमोद, विलास, रसज्ञता और वैभव का क्रीड़ास्थल था। संगमरमर के फर्श पर बहुमूल्य कालीन बिछे हुए थे। चलते समय उनमें पैर धंस जाते थे। दीवारों पर मनोहर पच्चीकारी; कमरों की दीवारों में बड़े-बड़े आदम-कद आईने; गुलकारी इतनी सुंदर कि आँखें मुग्ध हो जायँ; शीशे की अमूल्य अलभ्य वस्तुएँ; प्राचीन चित्रकारों की विभूतियाँ; चीनी के विलक्षण गुलदान; जापान, चीन, यूनान और ईरान की कला-निपुणता के उत्तम नमूने; सोने के गमले; लखनऊ की बोलती हुई मूर्तियाँ; इटाली के बने हुए हाथी-दाँत के पलँग; लकड़ी के नफीस ताक; दोवारगोरें; किश्तियाँ; आँखों को लुभानेवाली, पिंजड़ों में चहकतो हुई, भाँति-भाँति की चिड़ियाँ; आँगन में संगमरमर का हौज और उसके किनारे संगमरमर की अप्सराएँ-मिसेज सेवक ने इन सारी वस्तुओं में से किसी की प्रशंसा नहीं की, कहीं भी विस्मय या आनंद का एक शब्द भी मुँह से न निकाला। उन्हें आनंद के बदले ईर्ष्या हो रही थी। ईर्ष्या में गुणग्राहकता नहीं होती। वह सोच रही थीं-एक यह भाग्यवान् हैं कि ईश्वर ने इन्हें भोग-विलास और आमोद-प्रमोद की इतनी सामग्रियाँ प्रदान कर रखी हैं। एक अभागिनी मैं हूँ कि एक झोपड़े में पड़ी हुई दिन काट रही हूँ। सजावट और बनावट का जिक्र ही क्या, आवश्यक वस्तुएँ भी काफी नहीं। इस पर तुर्रा यह कि हम प्रातः से संध्या तक छाटती फाड़कर काम करती हैं, यहाँ कोई तिनका तक नहीं उठाता। लेकिन इसका क्या शोक? आसमान की बादशाहत में तो अमीरों का हिस्सा नहीं। वह तो हमारे पास होगी। अमीर लोग कुत्तों की भाँति दुतकारे जायेंगे, कोई झाँकने तक न पायेगा।