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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५२५

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रंगभूमि


तीसरा सिर पीटता हुआ बोला-"कितना तेजस्वी मुख-मंडल है! हा, मैं क्या जानता था कि मेरे व्यंग्य वज्र बन जायँगे?”

चौथा-"हमारे हृदयों पर यह घाव सदैव हरा रहेगा, हम इस देवमूर्ति को कभी विस्मृत न कर सकेंगे। कितनी शूरता से प्राण त्याग दिये, जैसे कोई एक पैसा निकाल कर किसी भिक्षुक के सामने फेक दे। राजपुत्रों में ये ही गुण होते हैं। वे अगर जीना जानते हैं, तो मरना भी जानते हैं। रईस की यही पहचान है कि बात पर मर मिटे।"

अँधेरा छाया जाता था। पानी मूसलधार बरस रहा था। कभी जरा देर के लिए बूंदें हलकी पड़ जातीं, फिर जोरों से गिरने लगतीं, जैसे कोई रोनेवाला थककर जरा दम ले ले और फिर रोने लगे। पृथ्वी ने पानी में मुँह छिपा लिया था, माता मुँह पर अंचल डाले रो रही थी। रह-रहकर टूटी हुई दीवारों के गिरने का धमाका होता था, जैसे कोई धम-धम छाती पीट रहा हो। क्षण-क्षण बिजली कौंदती थी, मानों आकाश के जीव चीत्कार कर रहे हों! दम-के-दम में चारों तरफ यह शोक-समाचार फैल गया। इंदु मि० जॉन सेवक के साथ थी। यह खबर पाते हो मूर्चि्छत होकर गिर पड़ी।

विनय के शव पर एक चादर तान दी गई थी। दीपकों के प्रकाश में उनका मुख अब भी पुष्प के समान विहसित था। देखनेवाले आते थे, रोते थे और शोक-समाज में खड़े हो जाते थे। कोई-कोई फूलों की माला रख देता था। वीर पुरुष यों ही मरते हैं। अभिलाषाएँ उनके गले की जंजीर नहीं होती। विषय-वासना उनके पैरों की बेड़ियाँ नहीं होती। उन्हें इसकी चिन्ता नहीं होती कि मेरे पीछे कौन हँसेगा और कौन रोयेगा। उन्हें इसका भय नहीं होता कि मेरे बाद काम कौन सँभालेगा। यह सब संसार से चिमटनेवालों के बहाने हैं। वीर पुरुष मुक्तात्मा होते हैं। जब ल क जीते हैं निर्द्वन्द्व जोते हैं। मरते हैं, तो निर्द्वंद मरते हैं।

इस शोक-वृत्तांत को क्यों तूल दें? जब बेगानों की आँखों से आँसू और हृदय से आह निकल पड़ती थी, तो अपनों का कहना ही क्या! नायकराम सूरदास के साथ शफाखाने गये थे। लौटे ही थे कि यह दृश्य देखा। एक लंबी साँस खींचकर विनय के चरणों पर सिर रख दिया और बिलख-बिलखकर रोने लगे। जरा चित्त शांत हुआ, तो सोफो को खबर देने चले, जो अभी शफाखाने ही में थी।

नायकराम रास्ते-भर दौड़ते हुए गये, पर सोफी के सामने पहुंचे, तो गला इतना फँस गया कि मुँह से एक भी शब्द न निकला। उसकी ओर ताकते हुए सिसक सिसककर रोने लगे। सोफ़ी के हृदय में शूल-सा उठा। अभी नायकराम गये और उलटे पाँव लौट आये। जरूर कोई अमंगल-सूचना है। पूछा-"क्या है पंडाजी?" यह पूछते ही उसका कंठ भी रुंँध गया।

नायकराम की सिसकियाँ आर्त-नाद हो गई। सोफी ने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया और आवेश कंपित कंठ से पूछा-"क्या विनय....?" यह कहते-कहते शोकातिरेक की दशा में शफास्त्राने से निकल पड़ी और पाँड़ेपुर की ओर चली। नायकराम आगे-