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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/९८

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रंगभूमि


समिति का संचालन करते है। वही इसके अध्यक्ष हैं। जब व्यवस्थापक सभा के काम से अवकाश मिलता है, तो नित्य दो-ढाई घंटे युवकों को शरीर-विज्ञान संबंधी व्याख्यान देते हैं। पाठ्य-क्रम तीन वर्षों में समाप्त हो जाता है; तब सेवा-कार्य आरंभ होता है। अबकी बीस युवक उत्तीर्ण होंगे, और यह निश्चय किया गया है कि वे दो साल भारत का भ्रमण करें; पर शर्त यह है कि उनके साथ एक लुटिया, डोर, धोती और कंबल के सिवा और सफर का सामान न हो। यहाँ तक कि खर्च के लिए रुपये भी न रखे जायें। इससे कई लाभ होंगे-युवकों को कठिनाइयों का अभ्यास होगा, देश की यथार्थ दशा का ज्ञान होगा, दृष्टि-क्षेत्र विस्तीर्ण हो जायगा, और सबसे बड़ी बात यह कि चरित्र बलवान् होगा, धैर्य, साहस, उद्योग, संकल्य आदि गुणों की बृद्धि होगी। विनय इन लोगों के साथ जा रहा है, और मैं गर्व से फूली नहीं समाती कि मेरा पुत्र जाति-हित के लिए यह आयोजन कर रहा है; और तुमसे सच कहती हूँ, अगर कोई ऐसा अवसर आ पड़े कि जाति-रक्षा के लिए उसे प्राण भी देना पड़ा, तो मुझे जरा भी शोक न होगा। शोक तब होगा, जब मैं उसे ऐश्वर्य के सामने सिर झुकाते या कर्तव्य के क्षेत्र में पीछे हटते देखूँगी। ईश्वर न करे, मैं वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ। मैं नहीं कह सकती कि उस वक्त -मेरे चित्त का क्या दशा होगी। शायद मैं विनय के रक्त को प्यासी हो जाऊँ, शायद इन निर्बल हाथों में इतनी शक्ति आ जाय कि मैं उसका गला घोट दूँ।"

यह कहते कहते रानी के मुख पर एक विचित्र तेजस्विता की झलक दिखाई देने लगो, अश्रु-पूर्ण नेत्रों में आत्मगौरव की लालिमा प्रस्फुटित होने लगी। सोफिया आश्चर्य से रानी का मुँह ताकने लगी। इस कोमल काया में इतना अनुरक्त और परिष्कृत हृदय छिपा हुआ है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी।

एक क्षण में रानी ने फिर कहा—“बेटी, मैं आवेश मैं तुमसे अपने दिल की कितनी ही बातें कह गई; पर क्या करूँ, तुम्हारे मुख पर ऐसी मधुर सरलता है, जो मेरे मन को आकर्षित करती है। इतने दिनों में मैंने तुम्हें खूब पहचान लिया। तुम सोफी नहीं, स्त्री के रूप में विनय हो। कुँवर साहब तो तुम्हारे ऊपर मोहित हो गये हैं। घर में आते हैं, तो तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। यदि धार्मिक बाधा न होतो, तो (मुस्किराकर) उन्होंने मिस्टर सेवक के पास विनय के विवाह का संदेशा कभी का भेज दिया होता।"

सोफी का चेहरा शर्म से लाल हो गया, लंबी-लंबी पलके नीचे को झुक गई, और अधरों पर एक अति सूक्ष्म, शांत, मृदुल मुसकान की छटा दिखाई दी। उसने दोनों हाथों से मुँह छिपा लिया, और बोली—“आप मुझे गालियाँ दे रही हैं, मैं भाग जाऊँगी।”

रानी—“अच्छा, शर्माओ मत। लो, यह चर्चा ही न करूँगी। मेरा तुमसे यही अनुरोध है कि अब तुम्हें यहाँ किसी वात का संकोच न करना चाहिए। इंदु तुम्हारी सहेली थी, तुम्हारे स्वभाव से परिचित थी, तुम्हारी आवश्यकताओं को समझती थी। मुझमें इतनी बुद्धि नहीं। तुम इस घर को अपना घर समझो, जिस चीज की जरूरत हो,