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पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१८८

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( २ )

पण्डित लालताप्रसाद उन लोगों में से थे जो अपने सामने किसी दूसरे को बुद्धिमान् बनने का अधिकार ही नहीं देते।

अनोखेलाल की चर्चा चलने पर आप मुँह बना कर कहते--- "करते हैं नौकरी और बनते हैं स्वयंसेवक। और हमें समझाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे-एसे लौंडे हमने जाने कितने पढ़ाकर छोड़ दिये।"

"तो इसमें कौन सी शान है?" एक ने पूछा।

"स्वयंसेवक कहने-सुनने में जरा अच्छा मालूम होता है।"

"बस।"

"और नहीं तो उसमें कौन लाट साहबी घुसी है।"

गाँव में अनोखेलाल 'स्वयं सेवक जी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कुछ लोग तो साधारण तौर पर कहते थे और कुछ व्यंग से। पहले तो अनोखेलाल को व्यंग्यपूर्वक कहनेवालों पर ताव आता था परन्तु फिर यह सोच कर कि "बकने दो अपना क्या नुकसान है" वह शांत हो गया।

अब अनोखेलाल की छुट्टी का केवल एक सप्ताह रह गया।

एक दिन वह घूमता हुआ पण्डित लालता प्रसाद की ओर चला गया। लालता प्रसाद ने पूछा---"कहो, कब जा रहे हो।"

"अाज से पाँचवें दिन चला जाऊँगा।"

"हूँ! एक दिन हम भी शहर आने वाले हैं!"

"तो आइयेगा। मेरे पास ही ठहरियेगा।"

पण्डित जी बड़े अभिमानपूर्वक बोले---"सो तो हमें ठहरने की दिक्कत नहीं है। सङ्गमपुर के जमीदार का लड़का वहाँ पढ़ता है---मकान लिये हुए है, वहाँ ठहर सकते हैं। राय साहब हमारे बड़े कृपालु हैं उनके पास ठहर सकते हैं।"

"तब भला आप एक गरीब स्वयंसेवक के यहाँ क्यों ठहरने लगे।"

"सो कोई बात नहीं। हमारे गाँव के हो---तुम्हारे यहाँ ठहरने में